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[ * जैन निवन्ध रत्नावली भाग २
पाठ की भी सगति वैठती है। दौलतरामजी ने अपने क्रिया कोप मे ऐसे ही किसी आधार से द्वितीयोत्कुष्ट श्रावक के लिए जगहजगह 'ऐलि' शब्द का प्रयोग किया है जो चैलि (चलिक) का ही अपभ्रष्ट ज्ञात होता है।
यह ऐलक शब्द का सुसगत इतिहाम है। किन्तु मुख्तार सा० और प० हीरालाल जी सिद्धात शास्त्री ने (वसुनन्दि श्रावकाचार की प्रस्तावना के अन्त मे) 'अचेलक' शब्द से ऐलक शब्द की निष्पत्ति बताई है जो सगन मालूम नही पडती क्योकि किसी भी ग्रन्थकार ने द्वितीयाकृष्ट श्रावक के लिए 'अकेलक' शब्द का प्रयोग नहीं किया है अचेलक शब्द का प्रयोग श्रमणनिर्गन्थ साधुओ के लिए ही एक मात्र प्रयुक्त पाया जाता है उत्कृष्ट श्रावकों के लिए नहीं । दोनो के लिये इसे प्रयुक्त बताना एक तरह से गुड गोबर एक करना है।
गवेपक विद्वानो से प्रार्थना है कि वे इस विषय पर विचार कर अपनी सम्मति प्रकट करने की कृपा करे।
अन्त मे १३ मार्च के जैनसन्देश मे जो माननीय ब्रह्मचारी हीरालाल खशालचन्द जी दोशी ने क्षुल्लक चया र ८ प्रश्न विद्वानों से पूछे है क्रमश उनका सक्षिप्त उत्तर नीचे प्रस्तुत करते हैं -
(१) वसुनन्दि श्रावकाचार में प्रथम उत्कृष्ट श्रावक (क्ष ल्लक) के लिए जो एक वस्त्र का विधान है तथा सागार धर्मामृत मे जो प्रथमोत्कृष्ट के लिए उत्तरीय और कौपीन ऐसे दो वस्त्रो का विधान है इन दोनों मे वसुनन्दिका कथन पूर्वाचार्यानु समत ओर उपादेय है।