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[ * जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ दीक्षा लेना निरुपयोगी है। रत्नकरड श्रावकाचारमे कहा है कि
अंतक्रियाधिकरणं तप फलं सकलशिन स्तुवते । तस्माद्यावद्विभवं समाधिमरणे प्रयतितव्यम् ॥२॥
अधिकार ५
अर्थ-तपश्चर्या का फल समाधिमरण पर आश्रित है ऐसा सर्वज्ञ भगवान् कहते है। इसलिये अतसमय में अपनी सारी शक्ति समाधिमरण के अनुष्ठान मे लगानी चाहिये ।
आदि पुराण मे राजा महावल की कथा में लिखा है
'महाबल ने अवधिज्ञानी मुनि से अपनी शेप आयु एक मास की जानकर ममाधिमरण मे चित्त लगाया। आठ दिन तक तो उसने अपने घर के चैत्यालय में महापूजा की। तदनतर उसने सिद्धवरकूट चैत्यालय जा, वहां सिद्धप्रतिमा की पूजाकर सन्यास धारण किया। उसने गुरू की साक्षी से जीवनपर्यंत के लिये आहार, पानी, देहकी ममता, व बाह्याभ्यतर परिग्रहो का त्याग कर दिया। उस वक्त वह मुनि के समान मालूम पडता था। उसने प्रायोपगमन सन्यास लिया था। इस प्रकार वह २२ दिन तक सल्लेखना विधि मे रहकर अत मे प्राण त्यागकर दूसरे स्वर्ग मे ललिताग देव हुआ।"
इस कथा मे भी महावल के मुनि बनने की बात न लिखकर यही लिखा है कि 'वह मुनिके समान जान पड़ता था।'
(देखो पर्व ५ का श्लोक २३२) आचार्य जिनसेन ने आदि पुराण के पर्व ३६ श्लोक १६१ मे ऐसा लिखा है कि-"आचार्य को चाहिये कि-वह किसी को