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[ ★ जैन निबन्ध रत्नावली भाग २
है । व्यापक मे यह क्रिया असम्भव है । क्योकि व्यापक सर्वक्षेत्र मे व्याप्त है इसमे कोई भी क्षेत्र अवशेष नही रहता है जिसमे क्रिया हो सके । क्रिया के बिना सृष्टि की रचना नहीं हो सकती है । अव्यापक माने तो सर्वक्षेत्र की क्रियायें नहीं हो सकेगी। जो ईश्वर को अशरीरी माने तो अमूर्तिक से मूर्तिमान कार्य नही हो सकते हैं वर्ना अमूर्त आकाश से मूर्त पदार्थ उत्पन्न होने लगेंगे । तब असत् से सत् पदार्थ की उत्पत्ति हो जायेगी। जो ईश्वर को । शरीर सहित मान लिया जाये तो ईश्वर सब को दिखना चाहिए और उसे निरन्जन नही कहना चाहिए । जो ईश्वर को सर्वशक्तिमान माने तो सबको सुखी व सुन्दर बनाना चाहिए । यदि कहोकि बुरे काम करने वालोको बुरा बनाये तो कर्म बलवान हुए, ईश्वर को सर्व शक्तिमान मानना नहीं हो सकेगा । सर्वशक्तिमान नही मानने से समस्त सृष्टि की रचना उससे नही हो सकती है और सब काम उसी के लिये होते है तो वेश्या चोर उसने क्यों बनाये जिससे पापाचरण करना पडे ? सृष्टि बनाने के प्रथम समार में कुछ पदार्थ थे या नही ? जो पदार्थ येतो. ईश्वर ने क्या बनाया? जो पदार्थ नही थे तो बिना पदार्थी के सृष्टि कैसे बनाई ? बिना बनाये कुछ नही होता तो ईश्वर को स्वय बना हुआ मानें तो सृष्टि को भी स्वयं बनी हुई क्यो न मानें ? सभी काम ईश्वरकृत माने तो प्रत्यक्ष का लोप होगा क्योकि प्रत्यक्ष मे घटपट गृहादिक मनुष्यकृत देखे जाते हैं। सभी काम ईश्वरकृत मानने से जीवो के पुण्यपाप सब निरर्थक हो जायेंगे । न तो किसी को हिंसा आदि पाप कार्यों का फल मिलेगा और न किसी को जप, तप, दया आदि पुण्य कार्यों का फल मिलेगा । क्योंकि ये तो जीवों ने किये ही नहीं, यदि ईश्वर ने किये हैं तो इनका फल जीवो को मिलना क्यो चाहिए ? तक