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जैन कर्म सिद्धात ]
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__ अनन्त जीवो से व्याप्त यह संसार अनादि काल से चला आ रहा है और आगे अनन्तकाल तक चलता रहेगा। इस ससार मे रहने वाले जीवो मे कोई सुखी है, कोई दुखी है, कोई नर है, कोई मादा है, कोई सवल है, कोई निर्बल है, कोई बुद्धिमान है, कोई मुर्ख है, कोई कुरूप है, कोई सुरूप है इत्यादि जीवो की नाना प्रकार की अवस्थाये जो देखी जाती हैं उनका कारण जीव के किए हुए शुभाशुभ कर्मोके सिवाय और कुछ नहीं है । जब यहप्राणी अपने मन वचन काय से अच्छे-बुरे काम करता है तव आत्मा मे कुछ हरकत पैदा होती है उस हरकत से सूक्ष्म पुद्गल के अश आत्मा से सम्बन्ध कर लेते हैं इनको ही जैनधर्म मे कर्म बताया है। इन्ही शुभाशुभ कर्मों के फल से जीव की अच्छी-बुरी अनेक दशायें होती हैं । कुछ लोग इनका कारण ईश्वर को ठहराते हैं । पर यह ठीक नहीं है । अव्वल तो ईश्वर को सृष्टि रचने की जरूरत ही क्यो हुई ? न रचने पर उसकी कौन सी हानि हुई थी? और रची भी तो किसी को सुखी, किसी को दुखी आदि क्यो बनाया ? यदि कहो कि जीव जो अच्छे बुरे काम करता है उनका वैमा ही अच्छा-बुरा फल ईश्वर देता है। उसी से जीवो को ये विविध प्रकार की अवस्थाये देखने में आती हैं- तो ऐसा कहना भी ठीक नही है । क्योकि जब ईश्वर स्वय बुद्ध, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान है तो जीवो को पहिले पापकर्म करने ही क्यो देता है। जिससे आगे चलकर उसे उन पापियो को फल देने की नौबत आवे । हाकिम के सामने अपराध करे तब तो उसे हाकिम मना करे नही और अपराध हो चुकने के बाद उसे दण्ड देवे, हाकिम का ऐपा करना योग्य नहीं है। इसके अलावा हम पूछते हैं कि- ईश्वर समस्त सृष्टि मे व्यापक है तो व्यापक मे क्रिया नही हो सकती है। देश से देशान्तर होने को क्रिया कहते