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दिगम्बर परम्परा मे श्रावक-धर्म का स्वरूप ] [ २४३
(४) जिन पुस्तको के पढ़ने सुनने से आरम्भ - परिग्रह मे लालसा, दुःसाहस मिथ्यात्व, रागद्वेष, मान, कामवासना आदि दुर्भाव पैदा होते हैं, उनका पढ़ना-सुनना चौथा दुश्रुति नाम अर्थदण्ड है ।
(2) व्यर्थ ही जमीन खुरचना, जल को उछालना - छिडकना, आग सुलगाना, पखा करना, वनस्पत्ति को वृक्ष से सोडना - छेदन - भेदन करना, सैर-सपाटा करना, हाथ-पैर हिलाना और कुत्ता - विल्ली आदि हिंसक जीवो को पालना, यह सब प्रमादचर्या अनर्थदण्ड है ।
३ भोगोपभोग परिमाण व्रतः
जो एक बार भोगने मे आये जैसे अशन, पान, विलेपनादि वे भोग पदार्थ कहलाते हैं, और जो वार-बार भोगने मे आये जैसे, वस्त्र, आभूषणादि वे उपभोग पदार्थ कहलाते हैं । इस प्रकार भोग और उपभोग दोनो ही प्रकार के पदार्थों में इन्द्रियों को विषयासक्ति को घटाने के लिये चाहे वे प्रयोजनीय ही क्यो न हो तथापि उनकी संख्या का किसी नियत काल तक निर्धारित कर लेना कि इतने पदार्थ इतने समय तक नही सेवन करूँगा या अमुक-अमुक पदार्थों का शीत ऋतु मे ही अथवा ग्रीष्मऋतु आदि मे ही मेवन करूगा, इस प्रकार निषेधमुख या विधिसुख दोनो ही तरह से नियम करना भोगोपभोग परिमाण व्रत नामक तीसरा गुण व्रत है । पहिले परिग्रह परिमाण व्रत में जितनी वस्तुओ का परिमाण किया था, वह परिमाण इस व्रत भे कुछ काल के लिये और भी कम हो जाता है जिससे उसके अणुव्रत वृद्धिगत हो जाते हैं ।