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१. दिग्वतः
[ ★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २
दिशाओं को मर्यादित करके जो पापो की निवृत्ति के अर्थ मरणपर्यंत के लिए यह संकल्प करना कि मे दशों दिशाओ मे अमुक-अमुक दिशा मे इतने इतने क्षेत्र से बाहर नही जाऊँगा । इसे दिग्वत कहते हैं । यह मर्यादा प्रसिद्ध नदी, पर्वत, वन, देश, नगर और समुद्र को लक्ष्य करके की जाती है, तथा योजनो की गिनती से भी की जाती है। इस दिव्रत से मर्यादा के बाहर स्थूल सूक्ष्म सभी तरह के पापो की निवृत्ति हो जाने के कारण अणुव्रत हैं वे पंच महाव्रतो की परिणति को प्राप्त हो जाते है
२. अनयं दण्डव्रतः
मर्यादा के भीतर भी निरर्थक और अति अनर्थ कारक पाप योगो से बचते रहना अनर्थ दण्ड व्रत कहलाता है । उसके पाच भेद निम्न प्रकार है
(1) ऐसी बातें सुनाना जिससे सुनने वालो की प्रवृत्ति हिंसामय व्यापारो, आरभो ओर ठगाई करने आदि मे हो जाये, उसे पापोपदेश नामक प्रथम अनर्थ दण्ड कहते है ।
(२) बिना प्रयोजन फरमा, तलवार, गंती, फावडा, अग्नि, अन्य आयुध, विष, साकल आदि हिंसाकारक पदार्थों का किसी को मागे देना या दान करना हिंसा दान नामक दूसरा अनर्थदण्ड है ।
(३) द्वेषभाव से किसी के वध, बन्धन, च्छेद, क्लेशादिका चिंतन करना और रागभाव से पर स्त्री आदि के रूप श्रृंगारादिका चितवन करना अपध्यान नामक तीसरा अर्थदण्ड हैं ।
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