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दिगम्बर परम्परा मे श्रावक धर्म का स्वरूप ]
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(१) अधिक लाभ उठाने की दृष्टि से वैलादिको को बहुत लवे ममय तक चलाना, दौडाना, जोतना अतिवाहन अतिचार है ।
(२) विशेष लाभ की आशा से अधिक काल तक धान्यादि का अधिक सग्रह रखना अतिसग्रह अतिचार है ।
(३) दूसरो के अधिक नफा देखकर चकित होकर पछताना कि हाय यह व्यवसाय हम भी करते तो आज हम भी मालोमाल हो जाते । यह अतिविस्मय अतिचार है ।
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(४) अच्छा लाभ मिलने पर भी और अधिक लाभ की लालसा रखना अतिलोभ अतिचार है ।
(५) लोभवश किसी पर उसकी शक्ति से अधिक बोझा लादना अतिभारवहन अतिचार है ।
अणुव्रतो के पालने का फल
पंचाणुव्रतनिधयो निरतिक्रमण फलति सुरलोकम् । यत्रावधिरष्टगुण, दिव्य शरीरं च लभ्यते ॥
अर्थात निरतिचार रूप से पालन किये गये पाच अणुव्रत निधि स्वरूप हैं । और वे उस सुर-लोक को फलते हैं जहा पर 'अवधि ज्ञान, अणिमादि ८ ऋद्धियें और दिव्य शरीर प्राप्त होते है ।
(ख) तीन गुण व्रत
दिग्व्रत, अनर्थदण्डव्रत, और भोगोपभोग परिमाणव्रत ये तीन गुण व्रतो के नाम हैं । इनके धारण करने से अणुव्रत कई गुणे बढ जाते हैं । इसलिये इनका नाम गुणव्रत है ।