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[ * जैन निवन्ध रत्नावली भाग २
हमारा कहना अब्बल तो यह है कि उन्होने अचित प्राशुक द्रव्यो से पूजा करनी भी तो लिखीहै । उन्होंने ऐसा तो कही नहीं कहा की प्राशुक द्रव्यो से पूजा नहीं करना चाहिये । देखिये-मूलाचार की टीका मे चतुर्विशति समवन स्वरूप की गाथा मे 'अच्चिदणय' पद की व्याख्या में सम्कृत टीकाकार क्या कहते है-"अचित्वा च गधपुप्पधूप दीवादिभि प्रासुकैगनीत व्यरूप भावरूपैश्च" यहाँ साफ लिखा है कि प्रागुक लागे गक्ष पुष्पादि द्रव्यो से और भात्रो से पूजकर" यदि वहा जाय कि मूलाचार मे तो मुनीश्वरो के लिए विधान है मो ठीक है मगर इस स्थान मे चतुर्विगति म्नवन का स्वरूप कहने का प्रकरण है इसलिए मुनि और श्रावक दानो के लिए यह कथन लागू हो जाता है, फिर यहाँ तो गध पुष्प धूपादि मे द्रव्यपूजा करना लिखा है मो क्या मुनीश्वर भी द्रव्यपूजा कते है अत यह विधान श्रावक के लिए ही उपयुक्त जान पडता है। दूसरी वात यह भी है कि यदि सचित्त पूजा का विधान कलई उठा दिया होता तो बहुत से प्राणी जिनपूजा से वचित रहकर श्रावक कोटि मे ही गिने नही जाते क्योकि जिनपूजा का करना सब कालो और सब स्थिति के जीवधारियो के लिए अपनी-अपनी शक्ति अनुसार मुख्य बताया गया है जैसाकि स्वामी कुन्दकुन्द.चार्य के 'दाण पूजा मुक्ख मावय धम्मो ण सावगो तेण विणा" अर्थात् दान देना और पूजन करना यह श्रावक का मुख्य धर्म है इसके विना कोई श्रावक नही कहला सकता" इस कथन से स्पष्ट है। इससे यही सिद्ध होता है कि क्या देव, क्या पशु, और क्या मनुष्य, सब ही को पूजा करना चाहिये अव आप ही सोचें कि अगर अचित्त द्रव्यो से ही पूजा करने की आज्ञा देते तो जिन प्राणियो की अचित्त द्रव्य प्राप्त करने की परिस्थिति न होती तो वे पूजा