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दयामय जैन धर्म और उसकी देव पूजा ]
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तो उसे कोई ऐसा काम कदापि न करना चाहिये जो (विशेष)हिंसाजनक हो । हमारे कई दिगम्बरी भाई जिनपूजा मे हरित पुष्प काम मे लाते हैं । क्या उन्हे मालूम नहीं है कि भगवान् ने एक पुष्प मे भी अनत निगोद जीव बतलाये हैं इसके अलावा पुष्पो मे त्रस जीव चलते-फिरते नजर आते हैं वे तो सर्वसाधारण के प्रगट ही है ये सब देखते हुए भी वे इस प्रथा को छोडते क्यो नही हैं । उनके इस महाहिंसा मे इतना मोह क्यो है ? जैनाचार्य तो साफ कहते हैं । देखिये वसुनन्दि आचार्य क्या फरमाते हैं'सम्मत्तस्सपहाणो अणुकवा वण्णिऊ जह्या' सम्यक्तव का प्रधान कारण अनुकम्पा है । फिर देखिये
उबरवडपीपलपि य पायर संधाग तरु पसूणाइ । णिच्चं तस ससिद्धाइ ताइ परिवज्जिय व्वाइम् ॥५८॥
[वसुनन्दि श्रावकाचार]
अथ - गूलर, वड, पीपल, पीलखन और अन्जीर ये पाच फल तथा सधाणा और वृक्षो के फूल' इन सबमे त्रस जीवो की निरन्तर उत्पत्ति होती है इस वास्ते ये सब त्यागने योग्य है । देखा पाठक फूलो मे स्थावर ही नही किन्तु त्रस जीवो की निरन्तर उत्पत्ति आचार्य बतलाते है। समवशरण मे भगवान् की अहिंसा रूप दिव्य शक्ति से और वनो मे अहिंसा मूर्ति सुनीश्वरो के माहात्म्य से जाति विरोधी जीव भी अपनी हिंसक प्रकृति को छोडकर शाति से परस्पर प्रेम से विचरने लगते हैं उन्ही परमपूज्य महात्माओ की प्रतिमा के सामने आज हम पूजा के रूप मे अनत निगोद जीवो अनेक त्रस जीवो की विराधना करते नहीं हिचकिचाते । इस जगह शायद कोई कहे कि-तो फिर पुष्प चढ़ाने की आज्ञा आचार्यों ने दी ही क्यो ? उत्तर में