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[* जैन निवन्ध रत्नावली भाग २
करके भिक्षाकाल का मध्याह्न समय बताने की जरूरत ही नहीं थी। और यह भी मोचने की बात है कि सूर्योदय मे ३ घडो बाद यानी मवा घण्टे बाद तो श्रावक लोग जिनदर्शन पूजा स्टाध्यायादि से निगटते ही नही तो उस वक्न मुनि का आहार के लिए उतरना कैसे माना जा सकता है। कुछ श्रावक तो प्रभात मे सामायिक भो कन्ते है तदनन्तर पूजा म्वाध्यायादि करते हैं उनके लिये तो और भी मुश्किल पड़ती है। इसलिए सूर्योदय के तीन घडी बाद में मुनि का आहार समय मानना योग्य नही है।
यदि कहो कि "मुनियो का भिक्षाकाल जो मध्याह्न बताया गया है वह तो दूसरी दफे का काल है। इसके पहले प्रथम दफे का काल एक और है। क्योकि भोजन वेला एक दिन मे दो बार मानी है।"
ऐसा कहना भी ठीक नहीं है। हम पूछते है कि मुनियों की उस प्रथम वेला का समय कोनसा है ? यदि कहो कि दिनके १० बजे करीब, तो वह दूसरी बेला दो घण्टे बाद ही कैसे आ गई ? कम से कम दोनो वेलाओ मे ६ घण्टो का तो अन्तर होना चाहिए । भिक्षाकाल वजाय मध्याह्न के अपराह्न लिखा होता तो दूसरी वेला की भी सभावना की जा सकती थी, सो तो लिखा नही है । तथा मूलाचार और अनगार धर्मामृत मे सूर्योदय से दो घडी बाद से लेकर मध्याह्न से दो घडी पहिले तक के समय मे किये जाने वाले कार्यक्रम की जो तफसील दी है उसमे भी प्रथम आहारवेला का कही जिकर नहीं है । एव आशाधर ने भी सागारधर्मामृत मे श्रावक की दिनचर्या का वर्णन करते हुए सूर्योदय से लेकर मध्याह्न के समय तक व आगे भी सूर्यास्त