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[ ★ जैन निवन्ध रत्नावलो भाग २
से होता है । यहा भी स्याद्वाद से विचार करे तो आत्मा शरीर से सर्वथा भिन्न नही है । लक्षण की अपेक्षा से कथचित् भिन्न है । आत्मा चैतन्यमय है और शरीर जड है । तथापि दूध में शक्कर की तरह आत्मा शरीर के साथ ऐसा घुलमिल जाता है कि महसा दोनो को पृथक नहीं किया जासकता है । जैसे दोनो मानो एक हो गये हैं । यह अभिन्नता दोनो के एक दूसरे पर पडनेवाले प्रभाव से भी प्रगट होती है । जव आत्मा क्रोध करता है तो आखे लाल होती हैं, चेहरा विकराल हो जाता है । यह उदाहरण बताता है कि शरीर पर आत्मा का प्रभाव पडा है । वाल्य अवस्था मे आत्मा मे हीन शक्ति रहती है फिर युवावस्था तक क्रमशः आत्मा मे बल बढने लगता है, पुन. वृद्धावस्था मे बल घट जाता है इत्यादि से जाना जाता है कि शरीर का प्रभाव भी आत्मा पर काफी पड़ता है । इससे सिद्ध होता है कि आत्मा और शरीर मे लक्षण भेद से भिन्नता होते हुए भी दोनो का एक क्षेत्रावगाह हो जाने के कारण दोनो मे बहुत कुछ अभिन्नता भी है । और जब दोनो में अभिन्नत्व है तो शरीर को कष्ट देने से उसके साथ मिले हुये आत्माको भी कष्ट पहुचता है यही हिंसा है । इस तरह अजर अमर जीव को भी हिंसा होना सिद्ध होता है । जीव हिंसा का अर्थ यहा सर्वथा आत्मा का नाश हो जाना नही है किन्तु कष्ट से वर्तमान शरीर को छोडकर अन्य शरीर मे जाना यह जीव हिसा का अर्थ है । आत्मा और शरीर को सर्वथा भिन्न या अभिन्न मानने से तो हिंसा और अहिंसा दोनो ही नहीं बन सकेगी। जैसा कि कहा है
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आत्मशरीरविभेदं वदंति ये सर्वथा गतविवेकाः । कायवधे हंत कथं तेषां संजायते हिंसा ॥७