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जैन धर्म मे अहिंसा की व्याख्या ]
जीववपुषोरभेदो येषामैकातिको मतः शास्त्रम् । कायविनाशे तेषां जीवविनाश कथ वार्य ।
अर्थ जो अविवेकी आत्मा और शरीर मे सर्वथा भेद बताते है, खेद है कि उनके यहाँ शरीर के घात से हिंसा कैसे हो सकेगी। इसी तरह जिनके यहा आत्मा और शरीर मे एकातत अभेद माना गया है उनके यहा शरीर के नाश होने पर आत्मा का भी नाश हो जावेगा इस आपत्ति का निवारण कैसे हो सकेगा। अर्थात् आत्मा और शरीर मे सर्वथा भेद मानने से किसी के शरीर का धात करने से आत्मा को कुछ भी आघात नही पहुंचेगा तो हिंसा नाम की कोई चीज ही दुनिया में न रहेगी तब हिंसा के त्याग का उपदेश भी कोई क्यो देगा? तथा आत्मा और शरीर का सर्वथा अभेद माना जावे तो शरीर के घात से आत्मा का भी घात हो जावेगा। इस तरह जीव का नाश मानने से दयापालनादि धर्माचरण भी व्यर्थ हो जावेगा। जव आत्मा नही तो परलोक भी न रहेगा।
सत्य तो यह है कि-जैसे अग्नि से तप्त लोहे पर चोट देने से लोहे के साथ मिली हुई अग्नि पर भी आघात पहुँचता है, उसी तरह किसी के शरीर पर आघात पहुंचाने से उसके साथ मिले हुये आत्मा को भी बडी पीडा होती है इस पीडा ही का नाम हिंसा है। क्योकि जीव के शरीर, इन्द्रिय, श्वास आदि द्रव्य प्राण हैं इन्हीसे आत्मा प्रत्येक पर्याय मे जीता है। इन द्रव्य प्राणो का वियोग ही लौकिक मे मरण वहलाता है। 'नहि मृत्युसम दुख' मृत्यु का दुख जीवो के सबसे बडा दुख है। मरणात दुख देने वाले जीव घोर पातकी, महानिर्दयी, क्र रपरिणामी होते है । जहा क रता है वही हिंसा है-अधर्म है । दया के