SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 366
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३६२ ] [* जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ बिना धर्म नही हो सकता है। कहा भी है कि यस्य जीवदया नास्ति तस्य सच्चरितं कुतः। न हि भूतद्र हां कापि क्रिया श्रेयस्करी भवेत् ।। अर्थ-जिसके जीवदया नहीं है उसके समीचीन चारित्र कैसे हो सकता है ? क्योकि प्राणियो के साथ द्रोह करने वालों का कोई भी काम कल्याण का करने वाला है । दयालोरव्रतस्यापि स्वर्गतिः स्याददुर्गतिः। प्रतिनोऽपि दयोनस्य दुर्गतिः स्याददुति ॥ अर्थ-दयालु पुरुष यदि व्रताचरण नहीं भी करता है तो भी उसके लिये स्वर्गगति मुश्किल नहीं है। और जो व्रतो का पालन करता है किन्तु हृदय मे दया नहीं है तो उसके लिये नरकादि दुर्गति भी सुलभ है। तपस्यतु चिरं तोनं व्रतयत्वतियच्छतु। निर्दयस्तत्फलहीनः पोनश्चैकां दयां चरन् । अर्थ-चाहे कोई चिरकाल तक घोर तपस्या करे, व्रत पाले और दान देवे, यदि दया नहीं है तो उनका कोई फल मिलने वाला नहीं है । और एक दया है तो उनका बहुत फल है। मनो दयानुविद्धं चेन् मुधा क्लिश्नासि सिद्धये । मनोऽदयानुविद्ध, चेन् मधा किलश्नासि सिद्धये ॥ अर्थ-अगर दया से भीगा हुआ मन है तो सिद्धि के लिये कलेश उठाने की जरूरत नहीं है क्योकि दयालु को सिद्धि प्राप्त
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy