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जैन धर्म श्रेष्ठ क्यो है ? ]
[ ३८६ का नामशेष क्यो होता । सच तो यह है, कि जब से अहिंसा को छोडा तभी से भारत का पतन हआ है। राजाओ मे ईया, द्वष, विलासिता और पारस्परिक फूट बढने लगी तब पतन अवश्यभावी था । अहिंसा तो वीरो का धर्म है । प्रत्यक्ष देखलो, महात्मा गाधी की एक आशिक अहिंसा से ही सुदीर्घकालीन परतत्र भारत स्वतत्र हो गया।
इस प्रकार जैन धर्म मे वे सभी बाते पाई जाती है, जो एक उत्कृष्ट धर्म में पाई जानी चाहिये, इसी से हम उसे नि सकोच बहुत ही श्रेष्ठ धर्म कह सम्ते है और इसीलिये समतभद्र जसे प्रचड नैयायिक उसे अद्वितीय बताते है । यथा
"दयादमत्यागसमाधिनिष्ठं नयप्रमाणप्रकृताजसार्थन् । अधृष्यमन्यनिखिल प्रवादै जिन ! त्वदीय मतमद्वितीयम् ॥६॥
[युक्त्यनुशासन] अर्थ- हे जिनेन्द्र | आपका मत नय प्रमाण के द्वारा वस्तुतत्वको बिल्कुल स्पष्ट करने वाला, सपूर्ण प्रवादियो द्वारा अवाध्य होनेके साथ-साथ दया, दम, त्याग और समाधि (प्रशस्त ध्यान) की तत्परता को लिए हुये हैं यही सब उसकी विशेषता है अथवा इसीलिए वह अद्वितीय है ॥
तथा वेही आचार्य आगे चल कर उसे"सर्वापदामन्तकरं निरन्तं सर्वोदयतीर्थमिदतवैव"
इस पद से सपूर्ण आपदाओ का नाशक सर्वोदय तीर्थ तक बतलाते हैं।
इतना अधिक समीचीन और परमोपयोगी होने की वजह