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३८८ ] [ * जैन निवन्ध रत्नावली भाग २
अर्थ परमेश्वर जगत् के कर्तृत्व और कर्म को उत्पन्न नही करता और कर्म फल की योजना भी नही करता स्वभाव से सब होता है ॥१॥
ईश्वर किसी का पाप पुण्य ग्रहण नहीं करता, ज्ञान पर अज्ञान का परदा पडा होने से प्राणी मोह मे फंस जाते है ॥२॥
आत्मा, पुण्य, पाप और परलोक को मानने वाले जंनो को नास्तिक कहना भारी भूल है । तथा "नास्तिको वेदनिंदक" वैदिक मत को न मानने से भी जैनो को नास्तिक नही कह सकते । यो तो यवन भी कह सकते हैं कि कुरान शरीफ को न मानने वाले नास्तिक है। यदि ऐसा है तो विचारी नास्तिकता सब के गले पड़ने लगेगी।
३-जैन धर्म की अहिंसा को कायरता की जननी और भारतवर्ष के अध पतन का कारण कहना भी ठीक नहीं है। जिन दिनो सम्राट् चद्रगुप्त, गगराज, अशोक, अमोघवर्ष, कुमारपाल आदि जैन राजाओ का यहा राज्य था तब भारतवर्प बहुतकुछ उन्नति पर था। जैनो के पूज्य सभी तीर्थंकर क्षत्रिय कुल मे हुये है उनमे शाति, कु थु और अरनाथ इन तीन तीर्थंकरो ने तो दिग्विजय कर षट् खड पृथ्वी का शासन किया है। श्री नेमिनाथ तीर्थकर भी जरासध से युद्धार्थ रणभूमि मे गये हैं। चामु डराय भामाशाह, आशाशाह, आदि रण पारगत वीर जन ही थे। फिर मुसलमानी राज्यो मे अकबर का राज्य क्यो प्रशसनीय गिना जाता है ? इसलिए कि अकबर स्वय अहिंसाप्रिय बादशाह था और वह हीरविजय प्रभृति जैन विद्वानो के सदुपदेशो के अनुसार अपने राज्य मे अहिंसा को महत्व देने का प्रयत्न करता था। अगर हिंसा ही उन्नति का कारण होती तो मुसलमानी सल्तनत