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________________ भगवान की दिव्यध्वनि ] [ ४८५ अर्थ-सब की भाषा अर्द्ध मागधी रूप होना और तीन जगत् की जनता मे मित्रता का होना। (इस प्रकार इस श्लोक मे ये दो देवकृत अतिशय बतलाये है) दश भक्ति पाठ मे नदीश्वर भक्ति के श्लोक “सार्वार्द्ध मागधीया." की सस्कृत टीका मे प्रभाचन्द्र भी कुछ ऐसा ही लिखते है ।यथा "सर्वेभ्यो हिता सार्वा सा चासो अर्ध मागधीया च । अद्धभगवद्भा पाया मगध देश भाषात्मक अर्द्ध च सर्व भाषात्मक । कथमेव देवोपनीतत्व नतिशयस्येति चेत् मागध देव सन्निधाने तथा परिणतया भाषया सकल जनाना भाषण सामर्थ्य सभवात् । अथवा समवसरण भूमौ योजन मात्र मेत्र भगवद्भाषयो व्याप्त, परतो मगध देवै स्तभाषाया अद्धमागध भाषया सस्कृत भाषया च प्रवर्त्य ते । न केवल भाषा मैत्री च प्रीतिश्च, कथभूता मर्व जनता विपया सर्वजनाना समूह सर्व जनता सा विषयो यस्या सा तादृशी भाषा मंत्र च भवति । सर्वेहि जनाना समूहा मागध प्रोति कर देवातिशयव शान्मागध भाषया भाषतेऽन्योन्य मित्रतया च वर्तते इति द्वावतिशयो।" अर्थ-सब जीवो की हितकारी, भगवान् की दिव्य ध्वनि का आधा भाग मगध देश की भाषा रूप होना और आधा भाग सब भाषा रूप होना यह "सर्वार्द्ध मागधी भाषा" का अक्षरार्थ हुआ । इस पर प्रश्न कि यह अतिशय देवोपनीत कैसे ? उत्तरमागध देव की निकटता से उम प्रकार परिणत हुई मागध भाषा मे सब जनो के बोलने की सामर्थ्य हो जाती है जिससे वह देवोपनीत कहलाती है । अथवा समवसरण भूमि मे भगवान की भाषा एक योजन मात्र ही रहती है । आगे मगध देव उस भाषा हुआ। इस पहाना यह "सर्वाप होना और म
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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