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( XVII )
सुप्रसिद्ध वीतरागी सन्तो के ग्रन्थो मे प्रतिपादित विषयो से भी विरुद्ध पडते है |
यहां मैं उन ग्रंथो की विस्तृत चर्चा नही करना चाहता कारण वह विषयान्तर हो जायेगा तथापि " त्रिवर्णाचार", "सर्वोदय तीर्थ" आदि इसी कोटि के अनेक ग्रन्थ हैं। द्वादशाग का मूल रूप पूर्ण अ-प्रकट है मात्र उनके आशिक ज्ञान के आधार पर ही आचार्यो ने षट्खडागम - कषायपाहुड-गोम्मटसार महापुराण - रत्नकरण्ड श्रावकाचार - त्रिलोकसार लब्धिसार आदि ग्रन्थो का निर्माण किया है । आचाराग आदि अग और उत्पाद पूर्वादि पूर्वो का सद्भाव नही है तो भी आज लघु विद्यानुवाद आदि नाम से कल्पित ग्रन्थ प्रकाश मे आ रहे है । जिनका विषय और प्रक्रिया स्पष्ट रूप से जैन धर्म के मूल सिद्धातों के प्रतिकूल है ।
जैनाचार्यों के नाम से शासन देवता पूजा के ग्रन्थ ज्वालामालनी कल्प, भैरव - पद्मावती कल्प आदि प्रकाशित हैं जिनमे मात्र उनकी पूजा आदि ही जिनागम विरुद्ध नही, किन्तु पूजा पद्धति भी हिंसा पूर्ण अभक्ष, अग्राह्य पदार्थों से लिखी गई है जैन प्रतिष्ठा पाठी के नाम पर गोवर-पूजा-आरती का भी विधान लिखा गया है ।
यह सब कपोल कल्पित है । अथवा जिनागम को भ्रष्ट करने का ही प्रयास उन लेखको द्वारा कल्पित जैनाचार्यों के नाम पर किया गया है ।
स्व० प० मिलापचन्दजी कटारिया ने अपने अनेक शोध पूर्ण लेखो मे कतिपय विषयो का विश्लेषण करते हुये उनके