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भगवान की दिव्यध्वनि ]
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हुई तथापि आश्चर्य है कि स्वयभू के मुख कमल से सरस्वती पैदा हुई । कहने की इच्छा विना ही उनके दिव्यवाणी प्रकट हुई । वह वाणी एक रूप थी तो भी श्रोताओ को पाकर अलग अलग रूप हो जाती थी। जैसे कि नहर का बहता हुआ जल वृक्षो मे जाकर अनेक रूप हो जाता है। उनके मुख कमल से दिव्यध्वनि मेघ शब्द की तरह निकलती थी।
भाषा भेद स्फुरत्या स्फुरण विरहित, स्वाधरोद्भाषयाच
॥११७॥
[सर्ग ५६] सदिव्यध्वनिना विश्व संशयच्छेदिना जिन । दुंदुभिध्वनिधीरेण योजनांतर यायिना ॥६॥
[सगं २ 'हरिवश पुराणे जिन सेन" ] इसमे दिव्य ध्वनि को अनेक भाषा रूप होने वाली, बगैर होठ हिले पैदा हुई। दुदुभि की ध्वनि के समान गम्भीर और एक योजन तक सुनी जाने वाली बताई है।
गोष्ट तालु आदिके हिले बिना अक्षर पैदा नही हो सकते ऊपर के प्रमाणोमे ओष्टताल्वादिका न हिलना भगवान के बताया ही है इसी से उनकी वाणी का निरक्षरीपणा अनायास सिद्ध हो जाता है । तथा उपयुक्त प्रमाणो मे उनकी ध्वनि को मेघ और दु दभिकी ध्वनि वत् बतलाना भी वैसा सिद्ध करता है। तथापि हम यहाँ ऐसे प्रमाण भी दे देते है जिनमे स्पष्ट ही निरक्षरी वाणी लिखी है
गंभीर मधुर मनोहरतरं, दोषेरपेनं हितं । कंठोष्टादिवचो निमित्त, रहित नो बात रोधोद्गतम् ।