________________
२८८ ] [ * जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ है देय की शुद्धि दाता और पात्र को शुद्ध करती है। एक पात्र की शुद्धि दाता देय को पवित्र करती है। इस प्रकार का नवकोटि शुद्ध दान प्रचुर फल का देने वाला होता है।
इसमे जो लिखा है उसका अभिप्राय ऐसा है कि दाता, देय (दान का द्रव) और पात्र (दान लेने वाता) इन तीनो मे यदि तीनो ही अशुद्ध हो तब तो वह दान विधि दोषास्पद है ही। किन्तु इन तीनो मे से कोई भी दो अशुद्ध हो और एक शुद्ध हो तो उस हालत मे भी वह दान विधि दोषास्पद ही है। यही नहीं तीनो मे से यदि दो शुद्ध हो और सिर्फ एक ही कोई सा अशुद्ध हो तब भी वह दान विधि दोषास्पद ही समझनी चाहिए। मतलब कि दान विधि मे दाता देय और पात्र ये तीनो ही निर्दोप होने चाहिये तब ही वह बहुत फल को दे सकती है। तीनो मे कोईसा एक भी यदि सदोष होगा तो वह दान विधि प्रशस्त नही मानी जा सकती है ।
उक्त श्लोक द्वय मे लिखा है कि दाता की शुद्धि देय और पात्र को पवित्र बनाती है। इस लिखने का भाव यह है कि यद्यपि देय और पात्र शुद्ध है मगर दाता अशुद्ध है तो इस एक की अशुद्धि ही सब दान विधि को सदोष बना देगी और दाता व पात्र शुद्ध है मगर देय कहिये दान का द्रव अशुद्ध है तो यहाँ भी इस एक की अशुद्धि ही समस्त दान विधि को सदोष वना डालेगी। इसी तरह दाता और देय शुद्ध है मगर पात्र अशुद्ध है तो वह दान विधि भी सारी की सारी सदोष ही समझी जाएगी।
जिन सेना चार्य का यह कथन आशाधर ने सागर धर्मामृत अध्याय ५ श्लोक ४७ की टीका मे तथा अनगारधर्मामृत के