________________
नवकोटि विशुद्धि ]
[ २८६
५ वें अध्याय के अन्त में और शुभचन्द्र ने कार्तिकेयानुप्रेक्षा की गाथा ३६० की टीका में उद्धृत किया है ।
किन्तु सोमदेव ने यशस्तिलक के निम्न श्लोक मे जिनसेन के उक्त कथन के विरुद्ध लिखा है ।
मुक्तिमात्रप्रदाने हि का परीक्षा तपस्विनाम् । ते संतः संत्यसंतो वा गृही दानेन शुद्ध्यति ॥ ८१८ ||
अर्थ - भोजनमात्र के देने में साधुओ की क्या परीक्षा करनी ? वे चाहे श्रेष्ठ हों या हीन हो । गृहस्थ तो उन्हें दान देने से शुद्ध हो ही जाता है ।
सोमदेव ने इस श्लोक मे यह शिक्षा दी है कि मुनि को आहार दान देते वक्त गृहस्थ को यह नही देखना चाहिए कि यह मुनि आचारवान् है या आचार भ्रष्ट है उसकी जाँच पडताल करने की जरूरत नहीं है। मुनि चाहे कैसा ही अच्छा बुरा क्यों न हो गृहस्थ को तो आहारदान देने का अच्छा ही फल मिलेगा ।
सोमदेव का ऐसा लिखना जिनसेनाचार्य की आम्नाय के विरुद्ध है क्योकि जिनसेन ने ऊपर यह प्रतिपादन किया है किपात्रकी शुद्धि दाता और देय दोनोको पवित्र बनाती है । प्रकारातर से इसी को यो कहना चाहिए कि - पात्र की (दान लेने वाले साकी अशुद्धि दाता और देयको भी अशुद्ध बनादेती है । भावार्थ उत्तमदाता और उत्तम देय के साथ-साथ दान लेने वाला भी सुपात्र होना चाहिए तबही दानीको दानका यथेष्टफल मिलता है ।
महर्षि जिनसेन और सोमदेव के इन परस्पर विरुद्ध वचनो मे किनका वचन प्रमाण माना जाए यह निर्णय हम विचारशील पाठको पर ही छोड़ते है ।