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हवनकुण्ड और अग्नित्रय
दि. जैन धर्म के ज्ञात साहित्य में इस विषय का संक्षिप्त कथन सबसे पहिले आचार्य जिनसेनकृत आदिपुराण में पाया जाता है यही नहीं और भी क्रिया-कांडो के विषय पर सबसे पहिले लेखनी चलाने वाले दिगम्बर ऋषियों में उक्त जिनसेल का ही आभास होता है। दूसरे इनके बाद क्रियाकाड पर और भी विस्तृत लिखने वाले पं० आशाघर जी नजर आते हैं । किन्तु इस विपय मे दोनो का दृष्टिकोण भिन्न २ प्रतीत होता है। आचार्य जिनसेन ने इस विपय मे जो कुछ विधान प्रस्तुत किये है उनमे उन्होने जैनधर्म को मूल सस्कृति की सुरक्षा का पूरा २ ध्यान रक्खा है कि जब कि आशाधर जी द्वारा निरूपित विधिविधानो मे कहीं २ यह चीज नही पाई जाती है। आशाधर जी के विधि-विधानो मे लौकिक मान्यताओ और श्वेतांवरी मान्यताओ का बहुत कुछ उपयोग किये जाने की वजह से यह विसंगति खडी हुई है। उदाहरण के तौर पर इसके लिये जैनसन्देश-शोधाक १० मे तथा जैन निवन्ध रत्नावली प्रथमभाग पू० ६० मे प्रकाशित हमारा नवग्रह वाला लेख देखियेगा। आशाधर जी के बाद इन्द्रनन्दि, हस्तिमल्ल, एकसन्धि आदि ने तो इस विषय को और भी वृद्धिगत किया है जिसमे इन्होने आशाधर जी का अनुसरण करने के साथ ही ब्राह्मणमत की कई मई क्रियाओ का भी समावेश किया है।