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उद्दिष्ट दोष मीमांसा ]
और यह कुन्दकुन्द का उदाहरण जो आपने दिया वह तो आपके मतव्य के विरुद्ध पडता है। वह इस तरह कि वे श्रावक अपने किसी काम के निमित्त साथ मे गए थे या सुनियो के काम के निमित्त ? दोनो ही हालतो मे उदिष्ट होता है। क्योकि आपने उद्दिष्टका लक्षण ही यह माना है कि-जो किसी के भी उद्देश्य से हो । अर्थात् आप एक तरफ तो यह कहते है कि-श्रावक अपने खुद के निमित्त बनावे तो वह भी उद्दिष्ट और मुनियो के निमित्त बनावे तो वह भी उद्दिष्ट । दूसरी तरफ कहते हैं-गरम पानी, वसतिका, पीछी, कमण्डलु आदि नो मनियो के उद्देश्य से ही बनते हैं। आपके इन परस्पर विरोधी वचनो से आप डावाडोल से नजर आते हैं।
(शास्त्र-विरुद्ध और मन कल्पित अर्थ करने वालो की यही स्थिति होती है)
जब श्रावक अपने निमित्त भी नहीं बनायेगा और मुनियो के निमित्त भी नही बनायेगा तो उसके यहा आहारादि सब विना उद्देश्य के ही बनते रहेगे क्या । "प्रयोजनमनुदिश्य मदो पि न प्रवर्तते ।" बिना प्रयोजन के तो मुर्ख भी काम नहीं करता है। श्रावक के घर में कोई सचित्त त्यागी होगा तो उसके उद्देश्य से उसके लायक आहार नही बनेगा क्या है और वह उसमे से मुनि को दान नहीं दे सकता है क्या?
आपने लिखा - "आर्यिका के लिए साडी, क्षल्लको के लिये लगी आदि वस्त्रो की व्यवस्था श्रावक खास पात्रो के लिए
क्षणभर मे गिरनारजी गये होगे । उन जैसे महर्षि के लिए यह कहनाकिगिरनार यात्रा में गाडी घोडे तम्बू डेरे आदि लेकर उनके साथ श्रावक गए थे, यह उन महर्षि का अवर्णवाद है।