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[* जैन निवन्ध रत्नावली भाग २
एकेन्द्रिय हिंसा होय ताते अनन्तगुणे जीवनि की हिंसा सुई की अणीमात्र मांस के भक्षण करने मे है पृष्ठ १८१ ।" प० सदासुख जी साव ने भी मांस मे जो निगोदिया जीव सतत उत्पन्न होते है उन्हे एकेन्द्रिय ही माना है। किन्तु "श्री जिनागम"
पुस्तक के पृष्ठ ३२३ पर देशाई जी ने इस कथन की आलोचना - की है जो ठीक नहीं है। प० सदासुख जी का कथन आगमानुसार है।
श्री मूलशकर जी देशाई ने अलब्धपर्याप्तक त्रसो को त्रसनिगोद की सज्ञा दी है। किन्तु वे सख्यात या असख्यात ही उत्पन्न होते हैं अनन्त नहीं। यहाँ अनन्त का उल्लेख होने से स्थावर निगोद ही ग्राह्य है जो अपर्याप्तक औरपर्याप्तक दोनो होते हैं जवकि त्रस निगोद पर्याप्तक नही होते । .
आशा है वहश्रुतज्ञ विद्वान और त्यागी वर्ग इस निवन्ध पर गहरे चिंतन के साथ अपने विचार प्रकट करने की कृपा करेगे।
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