________________
[ ★ जैन निबन्ध रत्नावली भाग २
२४६ ]
मिलती है, जिससे इनका नाम शिक्षाव्रत है ।
(१) देशावकाशिक व्रत - दिव्रत मे यावज्जीवन के लिये जितने क्षेत्र का परिमाण रक्खा था उसे गाँव, नदी, आदि को लक्ष्य करके काल की मर्यादा से घटाते रहना, जैसे आज या इतने दिन मास तक मै अमुक नदी, खेत, गाँव, घर आदि से आगे नही जाऊगा इसे देशावकाशिक व्रत कहते हैं । यह व्रत नित्य रहता है यानी इस व्रत के धागे को एक दफे क्षेत्र की मर्यादा जितने समय तक के लिये की है उस समय के समाप्त होने पर फिर काल परिमाण से नई मर्यादा करते रहना आवश्यक है । इस व्रत मे उतने काल तक के लिये मर्यादा के बाहर के क्षेत्र मे व्रती के सभी प्रकार के पाप छूट जाते हैं । वह वहा की अपेक्षा महाव्रतो का साधक वन जाता है ।
(२) सामायिक व्रत - किसी विवक्षित समय तक पाँचों पापों का सर्वथा त्याग कर कायवचन की प्रवृत्ति और मन की व्यग्रता को रोककर वन, मकान, या चैत्यालय में जहाँ भी एकांत - निरूपद्रव स्थान हो वहाँ प्रसन्नचित्त होकर सब तरह के दुध्यानो को छोड़ता हुआ एकाग्र मन से वैठकर या खडे होकर परमात्मा की स्तुति, वदना करना, उनके गुणों का स्मरण व वारह भावनी का चिंतन आदि शुभ ध्यान मे लगे रहना सामायिक नाम शिक्षाव्रत कहलाता है । यह सामायिक प्रोषध के दिन करे या नित्य भी कर सकता है। सामायिक मे शीतोष्ण को, दशमशक आदि परीषहो को और अन्य कोई उपसर्ग आवे तो उसको भी निश्चल होकर शांत भाव से सहना चाहिये । इसका अभ्यास महाव्रती बनने में सहायक होता है। इसमे वस्त्र के सिवा कोई परिग्रह नही रहता है और आरभ भी सब छूट