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________________ दिगम्बर पराम्परा मे श्रावक-धर्म का स्वरूप ] [२४७ जाते है । अत सामायिक धारी श्रावक को उतने काल के लिये एक ऐसे मुनि की तरह समझना चाहिये जैसे किसी ने वस्त्र डालकर मुनि पर उपसर्ग किया हो। (३) प्रोषधोपवास व्रत - एक मासमे दो अष्टमी और दो चतुर्दशी ऐसे चार पर्व-दिन माने जाते है । पर्व दिन से पूर्वोत्तर दिन मे मध्यान्ह मे एक बार भोजन करके धारणा, पारणा करना और पर्व के दिन मे सब प्रकार का भोजनपान, छोडकर समय को निरालसी होकर ध्यान, स्वाध्याय या उपदेश मे विताना यह प्रोषधोपवास शिक्षाव्रत कहलाता है, यह उपवास धर्मकामना से (सवर निर्जरा के ध्येय से) किया जाना चाहिये न कि मत्रसिद्ध, लघन आदि के उद्देश्य से । प्रोषधोपवास के काल मे पचपापो का त्याग करने के साथ ही साथ श्रृ गार-करना, सुगन्ध लगाना, पुष्पमाला पहिनना, स्नान करना, अजन लगाना, तमाखू सू घना आदि नस्य,दातो का मजन,उद्योग,धधा,नृत्य गीत आदि को त्याग देना चाहिये और पूर्ण ब्रह्मचर्य से रहना चाहिये । (४) वैयावृत्य व्रत.-सम्यग्दर्शनादि गुणो के धारी, गृहत्यागी, निष्परिग्रही, निरारभी साधु को केवल धर्ममावना से भक्ति पूर्वक यथाशक्ति आहार, औषध, उपकरण और वसतिका प्रदान करके तथा गुणानुराग से उन सयमियो की पग चपी आदि रूपसे जितनी भी सेवा अपने से बन मके करके उनका कष्ट निवारण करना वैय्यावृत्य नामक चौथा शिक्षा-व्रत है। इस वैय्यावृत्य से गृहस्थ के कामधधो से सचित हुए पाप धुल जाते हैं साधुओं को दिया हुआ थोडा भी दान बहुत फलका कारण होता है। जैसे बड के छोटे से बीज को वोने से वहुत छाया व बहुत फलवाला वट वृक्ष पैदा होता है। न थातरो मे
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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