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[ ★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २
न नरक और देवगति को प्राप्त हो सकते है । नियमत देव और नरक दोनो ही गति के जीव तिर्यच और मनुष्यगति मे ही जन्म लेते है । देवो और नारकियो की आयु दम हजार वर्षो से कम नही होती, अधिक तो उतनी होती है कि जिसकी गणना लौकिक संख्या मे नही आती। किसी भी गति से मरे हुए जीव को भवान्तर मे जन्म लेने से निमेष ( आंख को टिमकार ) मात्र काल से भी बहुत कम समय लगता है । जिस शरीर मे से निकलकर कोई जीव जब भवान्तर मे जाना है, तब गस्ते मे उस जीव का आकार पूर्व शरीर जैसा रहता है। जब यह भवान्तर मे दूसरा नया शरीर ग्रहण करता है, तब उसके शरीर का आकार नये प्रकार का हो जाता है ।
जैनधर्म के सिद्धान्तशास्त्रो मे लिखा है कि देवो और नारकियो को वर्तमान भव की आयु के समाप्त होने मे जव छ माम का समय शेष रह जाना है, तब उनके किसी अगले भव की आयु का निर्माण होता है । अर्थात् तब उनके भव की आयु (कर्म) का बन्ध होता है, और उस आयु के कर्म फल से जितनी आयु उसने बाँधी है, उतने समय तक उसे अगले भव (योनि) मे रहना पडता है । इसी तरह मनुष्य और तिर्यंचो को अपनी वर्तमान भव की आयु के तीन भागो मे दो भाग व्यतीत हो जाने के वाद तीसरे भाग मे अगले भव की आयु का वन्ध होता है । किन्तु इनको यह पता नही लगता कि हमारी आयु कितनी है. और अगले भव की आयुबन्ध का कौनसा समय है ।
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आयु वध के समय मे श्रेष्ठ परिणाम होने से अगले भव मे अच्छी गति मिलती है। इसलिए मानवो को सदा ही अपना उत्तम आचार-विचार रखना चाहिए। पता नही, कब आयुबन्ध का समय आ जाए ।