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[ ★ जैन निबन्ध रत्नावली भाग २
स्वाध्याय समाप्त किये वाद मुनिको भोजन करने की लिखी है और मध्य दिन से २ घडी बाद गोचरी सम्बन्ध दोषो का प्रतिक्रमण कर आपराह्निक स्वाध्याय प्रारम्भ करने की लिखी है । आणाधर जी के इस कथन से ऐसा ही प्रतिभासित होता है कि उन्होने इन चार घडियो को ही प्राय मुनियो का भिक्षाकाल माना है । और इन चार घडियो के काल को ही उन्होने प्राय. मध्याह्न काल गिना है मूलाचार मे देववन्दना करके गोचरी पर जाने को लिखा है । अत यह देव वन्दना भी उक्त ४ घडियो के अन्दर ही की जाती है । इन चार घडियो का भिक्षाकाल ही उत्सर्ग मार्ग समझना चाहिये । किसी कारणवश यदि अधिक समय लग जाये तो वह कादाचित्क है उसे अपवादमार्ग कहना चाहिए। इस प्रकार यह मध्याह्नकाल दिन के ११ बजे से पौण बजे तक का समझना चाहिए।
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यहाँ एक सवाल पैदा होता है कि सामायिक का काल 'छह घडी का है और वह मध्याह्न मे भी की जाती है तब मध्याह्न की ४ घडियो मे भिक्षाकाल कैसे माना जा सकता है ? एक काल मे दो काम कैसे बनेगे ? जो समय भिक्षा का है वही सामायिक का है तो दोनो मे से एकही कार्य हो सकेगा ।
इसका उत्तर नीचे दिया जाता है, वह गम्भीरता से समझने का है
मूलाचार के प्रथम अधिकार मे मूलगुणों का वर्णन करते हुए छह आवश्यको का विवेचन किया है, परन्तु वहाँ सामायिक के काल का परिमाण नही बताया है । फिर उसी मूलाचार मे आवश्यक निर्युक्ति नाम के अधिकार मे नाम स्थापना आदि छह निक्षेपो के द्वारा आवश्यको का विस्तार से वर्णन किया है