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[ ★ जैन निबन्ध रत्नावली भाग २
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और दूसरा हेतु भिन्नता के लिए यह दिया जाता है कि " द्रव्य संग्रह मे आश्रव के भेदो मे प्रमाद को गिना है । जब कि गोम्मटसार मे प्रमाद को नही लिया है ।" यह हेतु भी जोरदार नही है । क्योकि इस विषय मे शास्त्रकारो की दो विवक्षा रही है । तत्वार्थ सूत्र और उनके भाष्यकार आदिको ने आश्रव के भेदो मे प्रमाद को लिया है, मूलाचार आदि मे प्रमाद को नही लिया है । ये दोनो ही विवक्षाएं नेमिचन्द्र के सामने थी और दोनो ही उन्हे मान्य भी थी इसीलिए उन्होने जहाँ वृह० द्रव्य संग्रह मे आश्रव भेदो मे प्रमाद को लिया है वहाँ लघु द्रव्यसंग्रह की १६वी गाथा मे प्रमाद को नहीं भी लिया है । (देखो अनेकांत वर्ष १२ किरण ५ )
अलावा इसके उन्होने द्रव्यसग्रह को समाप्त करते हुए जिस ढंग से अपनी लघुता प्रदर्शित की है । वही ढग उन्होने त्रिलोकसार की समाप्ति के समय मे भी अपनाया है । दोनो के वाक्यो को देखिए
इदि णेमिचन्द मुणिा अप्पसुदेणामयणदिवच्छेण । रइयो तिलोयसारो खमतु तं बहुसुदाइरिया ॥ [त्रिलोकसारे ] दव्वसंगहमिणं मुणिणाहा, दोससंचयचुदा सुदपुण्णा । सोधयंतु तणुसुत्तधरेण फेमिचंद मुगिणा भणियं जं ॥ [ द्रव्यसंग्रह ]
इनमे अप्पसुद-तणुसुत्तधर, सुदपुण्णा बहुसुदा ये वाक्य अर्थ - साम्य को लिए हुए हैं। इससे दोनो को अभिन्न मानने की ओर हमारा मन जाता है। इस प्रकार जबकि नेमिचन्द्र का समय विक्रम की