________________
अलब्धपर्याप्तक और निगोद ]
[ ४६
वाद फिर भी उसी ' मनुष्य योनि मे लगातार जन्म ले तो वह वार से अधिक नही ले सकता । पृथ्वी आदि ४ सूक्ष्म पर्याप्तक स्थावर जीव मर-मरकर अपनी उसी पर्याय मे लगातार अधिक से अधिक असख्य वार जन्म ले सकते है । और पर्याप्त निगोदिया जीव अनन्त वार जन्म ले सकते है । उसी तरह अलब्धपर्याप्तक जीव के लिये लिखा है कि वह भी यदि अलब्धपर्याप्तक के भव धारण करे तो ऊपर जिस पर्याय मे जितने भव लिखे हैं वहाँ वह अधिक से अधिक उतने ही भव धारण कर सकता है । जैसे किसी जीव ने सूक्ष्म निगोदिया मे अलब्धपर्याप्तक रूप से जन्म लिया । यदि वह मरकर फिर भी वहाँ के वहाँ ही वार वार निरन्तर जन्म मरण करे तो अधिक से अधिक ६०१२ वार तक कर सकता है । इसके बाद उसे नियमत पर्याप्तक का भव धारण करना पडेगा । भले ही वह भव निगोदिया का ही क्यो न हो । यदि वह पर्याप्तक मे न जाये और फिर भी उसे अलब्धपर्याप्तक ही होना है तो वह सूक्ष्म निगोदिया मे जन्म न लेकर वादर निगोदिया या अन्य स्थावर तसो मे अलब्धपर्याप्तक हो सकता है । वहाँ भी जितने वहाँ के क्षुद्रभत्र लिखे है उतने भव धारण किये बाद वहाँ से भी निकल कर या तो उसे पर्याप्तक का भव लेना होगा या उसी तरह अन्य स्थावर त्रसो मे अलब्धपर्याप्यक रूप से जन्म लेना होगा। इस प्रकार से कोई भी जीव यदि सभी स्थावर त्रसो मे निरन्तर अलव्धपर्याप्तक के भवो को धारण करे तो वह ६६३३६ भव ले सकता है, इससे अधिक नही । ऊपर अलब्धपर्याप्तक मनुष्य के अधिक से अधिक ८ लगातार क्षुद्रभव लिखे है जिनका काल अधे श्वास से भी कम होता है । मतलव कि वह अर्द्ध श्वास कालमात्र
-