________________ 410 ] [* जैन निवन्ध रत्नावलो भाग 2 मे उत्तरोत्तर गति बढती जाती है। अतिम १८४वी वीथी की गोलाई 318314 योजनो की है और उसमे सूर्य की एक मुहूर्त की गति 530564 योजनो की होती है। चन्द्रमा की कुल 15 ही वोथियें है और प्रत्येक वीथी मे 35434 योजनो का अतराल है। ये वीथिये भी दक्षिण से उत्तर की तरफ ज्यो ज्यो आती गईहैं त्यो त्यो ही वे उत्तरोत्तर गोलाई मे कम होती आई हैं। चन्द्रमा की प्रथम वीथी और अतिम वीथी सूर्य की प्रथम वीथी और अन्तिम वीथी के ठीक 80 योजन ऊपर सीध मे हैं। इसलिये सूर्य की इन दो वीथियो की गोलाई जितने योजनो की बताई उतनी ही चन्द्रमा की भी इन दो वीथियो की समझनी चाहिये / चन्द्रमा प्रत्येक वीथी को चाहे वह कितनी भी छोटी बडी हो एक से दूसरी पर जाने मे उसे 6233 मुहूर्त लगते हैं कम अधिक नही। अत वह भी सूर्य की तरह दक्षिण से उत्तर मे आते वक्त उत्तरोत्तर मंदगति से और उत्तर से दक्षिण मे जाते हये उत्तरोत्तर तीव्रगति से गमन करता है। / यो तो जबूद्वीप मे सभी ज्योतिष्क गमनशील हैं किन्तु इसमे भी एक अपवाद है / इस द्वीप में कुछ (36) तारे ऐसे भी है जो गमन नहीं करते है। उन्हे ध्रुवतारे कहते है। (त्रिलोकसार गाथा 347) / / श्वे. तत्वार्थाधिगम भाष्य में लिखा है कि-ध्रुवतारा की गति मेरु की प्रदिक्षणा रूप से नहीं है। वह अपने ही स्थान पर घूमता रहता है / यथा-- "तस्यैव स्थाने स ध्र व परिभ्राम्यति न तु मेरो प्रादक्षिण्येन गति प्रतिपद्यते / तथाहि तदद्यापि ध्रुवताराचक्रमाक्रातोत्तरदिवक