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साधुओं की आहारचर्या का समय
जो भिक्षा प्रासुक हो, यथाकाल प्राप्त की हो और जिसके सम्पादन मे साधु का कृत कारित अनुमोदना का कुछ भी संपर्क न हो, ऐसी भिक्षा आगम मे साधु के लिए ग्रहण योग्य मानी है । इस प्रकार की भिक्षाचर्या को साधु के मूल गुणो और उत्तरगुणो मे प्रधान व्रत कहा है । ऐसी भिक्षाशुद्धि को त्यागकर जो साधुजन अन्य योगउपवास व आतापनादि त्रिकालयोगो को करते है, तो उनके किये वे अन्य योग सब चारित्रहीनो के किए जैसे है। उन्होने परमार्थ को नही जाना है । भिक्षाशुद्धि के साथ यदि थोडा भी तप किया जाय तो वह शोभनीय व सराहने योग्य है ।
ऊपर का सर्व कथन मूलाधार के समयसाराधिकार में बताया है । यथा
जोगेसु मूलजोग भिक्खाचरियं चः वाणियं सुत्त । अण्णे व पुणो जोगा विष्णाणविहीणएहि कया |४६ |
टीका - सर्वेषु मूलगुणेषूत्तरगुणेषु मध्ये प्रधानव्रतं भिक्षाचर्या । कृतकारितानुमतिरहित प्रासुक काले प्राप्तं वर्णिता प्रवचने । तस्मात्तां भिक्षाशुद्धिं परित्यज्य अन्यान् योगान् उपवासत्रिकाल योगादिकान् ये कुर्वंति, तैस्तेऽन्ये योगा विज्ञानविरहि