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[* जैन निवन्ध रत्नावली भाग २
अयं-जिन्होने इस पचमकाल मे गिरनार पर्वत के शिखर पर स्थित पापाण की बनी सरस्वती देवी को उसके मुह से बुलवाई, वे कुन्दकुन्दचार्य हमारी रक्षा करें।
इससे ध्वनित होता है कि ऋषि कुन्दकुन्द को भी परकाया प्रवेश की सिद्धि थी। ऐसी सम्भावना की जा सकती है।
आदिपुगण पर्व २१ श्लोक ६५ मे आचार्य जिनसेन ने कहा है कि
"जिनकी इन्द्रिया वश मे नही हैं ऐसे असमर्थ साधुओ का मन यदि अति तीव्र प्राणायाम से व्याकुल होता है तो उनके लिये ध्यान मे मन्दमन्द उच्छवास लेने का निषेध नही है।"
इससे यही फलितार्थ निकलता है कि जैन साधुओ के लिये अगर प्राणायाम का निषेध है तो वह असमर्थो के लिये है। साधुमात्र के लिये सर्वथा निषेध नही है।
इस लेख के प्रारम्भ मे जो घटना उद्धत की है उसमें चोला बदलने की- वृद्ध से युवा हो जाने की बात आई है। उस पर से कोई यह न समझले कि ऐसा करते २ तो वह कभी मरेगा ही नही ? यह तो जैन सिद्धान्त के विरुद्ध है। समाधान उसका यह है कि-यौगिक क्रिया से चोला बदलने वाला भी जितनी आयु पूर्व भव से लेकर आया है उससे अधिक जीवित नहीं रह सकता है। चोला बदलते वक्त जितनी आयु शेष रही है उतने काल तक ही उस बदले हुये शरीरो मे वह रह सकता है अधिक नहीं।