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पं० आशाधरजी का विचित्र विवेचन ]
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आश्चर्य तो यह है कि साधारण ही नही कुछ विशेषज्ञ भी ऐसे हैं जो प० आशाधरजीके परमभक्त हैं और इस ग्रंथको यहातक चिपटाये बैठे हैं कि इसे विद्यालयो के पठनक्रममे भी रख दिया है और इस तरह विद्यार्थियोंके लिये उनके प्रारभिक जीवन मे ही उन्मार्गका बीजारोपण किया है। अगर ऐसा ग्रथ छात्रोको व्युत्पन्न बनाना है । तो भी कुछ कामका नही है । क्योकि -
'मणिना भूषितः सर्प किमसो न भयंकरः '
खेद है कि जिस जैनधर्ममे आप्त तककी परीक्षा की जाती है उसीमे ऐसे कथन भी आगमके नामसे आंख मीचकर माने जाते है !
नोट:- इस लेख के लिए वसुनदि श्रावकाचार को प्रस्तावना पृष्ठ ३१ तथा जैम बोधक और सिद्धात वर्ष ५१ बैंक १२ (अप्रेल सन् ३५) भी देखिये |
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