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[ ★ जैन निबन्ध रत्नावली भाग २
शिष्टाचार लौकिक पद्धति में है, और जैनमुनि को आहार देना यह धर्म पद्धति मे है । इसीसे जैनमुनि को जो आहार दिया जाता है वह गुरु भाव से नवधा भक्ति पूर्वक दिया जाता है । नवधा भक्ति उनकी की जाती है जबकि हमारे गुरु सच्चे और श्रेष्ठ तपस्वी हो। अगर हम जानते हुये भी ढोंगी साधु की नवधा भक्ति करते है तो हम अवश्य ही परम्परा से चले आये जेनमुनि के आदर्श और पवित्र मार्ग को बिगाडते है । और ऐसा करके ढौग को प्रोत्साहन देने से निश्चय ही हम पाप का बन्ध करते हैं, रही लोकलाज की बात, सो बुरा काम तो लोकलाज से करने पर भी बुरा फल देगा ही ।
आचार्य नेमिचन्द्र त्रिलोकसार मे कुभोग भूमिका वर्णन किये बाद गाथा ६२२ मे लिखते हैं कि इन कुभोग भूमियो मे वे जैन मुनि जाते हैं जो मुनि होकर कपट करते हैं ज्योतिष व मन्त्रादि का प्रयोग करते है, धन की वाछा रखते हैं, ऋद्धियश साता रूप तीन गारवदोप युक्त और आहार-भय मैथुन - परिग्रह सज्ञा के धारी है ।
कुछ लोग पुलाकमुनि का उदाहरण देकर आधुनिक मुनियो के शिथिलाचार का पोपण करते हैं वह भी ठीक नही है । पुल मुनि का वर्णन तत्त्वार्थ सूत्र के ह वे अध्याय के सूत्र ४६-४७ मे आया है। उसकी सर्वार्थ सिद्धि टीका मे पुलाक मुनि को भावलिंगी और सामयिक छेदोपस्थापना सयम के धारी निर्ग्रन्थ बताते हुए यह लिखा है कि - " इनके कभी - कभी कही पर परवश से पाँच महाव्रतों मे से किसी एक की कुछ विराधना भी हो जाती है ।" इस कथन को देखते हुए जो