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[ ★ जेन निवन्ध रत्नावली भाग २
का ऐसा भाव मालूम होता है कि- साधु की भी २ भोजन वेला मानने से ही एक दिन की २ भोजन बेला के त्याग के हिसाव से चतुर्थ ६३ षष्ठअनु बनेगा अन्यथा नही । विन्तु यह ठीक नही | क्योकि गृहस्थको तो दोनो बेलाका उपवास के रोज त्याग तथा आदि क्षेत्र में १-१ वेला का त्याग नया ही करना पडता है किन्तु साधु के तो प्रतिदिन १ बेला का तो त्याग आजन्म ही है फिर भी उसे गिनना पडता है और इस तरह चतुर्थ पष्ठ अष्टम भी सज्ञी उनके भी सुसगत हो जाती है । ऐसा लिखना गलत और व्यर्थ है । हमने वहाँ विधि बताई है, उससे बराबर सज्ञाए बनती है । न मालूम आप लोगों ने इसको कैसे समझ रक्खा है ? शायद आप लोगो की ऐसी समझ हो कि 'एक बार भोजन किये बाद आगे चार टाइम तक भोजन न करना 'चतुर्थभुक्ति त्याग' कहलाता है ।" तो यह समझ भी ठीक नहीं है । ऐसा तो दस बजे भोजन करने से भी नही बनता है । जैसे बजे आपकी दृष्टि से किसीने धारणा के दिन प्रथम टाइम १० भोजन किया तो उसके दिन की एक दूसरी भोजन बेला छूटी, आगे उपवास के दिन की दो बेला छूटी और पारणा के दिन प्रथम बेला मे ही आहार कर लिया तो तीन बेलाओ का ही त्याग हुआ, चार बेलाओ का त्याग कहाँ हुआ ? अत जो रीति हम ऊपर बता आये हैं वही समीचीन और शास्त्रोक्त है ।
शास्त्रो मे एकाशन (व्रत) और प्रोषधोपवासादि के धारणे- पारणे का एकाशन सब मध्याह्न (दो पहर ) मे ही करना बताया है और प्राय प्रचार में भी ऐसा ही है सभी श्रावक एकाशन दोपहर में ही करते हैं तब मुनि जिन्होने इस एकाशन को सदा के लिए अपना मूलगुण बना लिया है उन्हे तो आहार मध्याह्न मे करना ही लाजिमी है और इसी लिए सभी शास्त्रो
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