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इन्द्रनदि
[ ★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २
कृत श्रुतावतार कथा में भी ऐसा ही
लिखा है
सुर नर मुनि वृंदारक वृ देष्वपि समुदितेषु तीर्थंकृतः । टषष्टिरहानि न निर्जगाम दिव्यध्वनिस्तस्य ॥ ४२ ॥
अर्थ - देव - मनुष्य मुनिगणों के इकट्ठे होते हुये भी उन वीर तीर्थंकर की दिव्यध्वनि ६६ दिन तक नहीं निकली।
गुण भद्रकृत उत्तर पुराण मे इस सम्बन्ध मे यद्यपि दिनों की कोई सख्या नही लिखी है तथापि उसके निम्न पद्य से वाणी केन खिरने की बात जरूर मिलती है
अथ दिव्यध्वनेर्हेतु, कोऽसावित्युपयोगवान् । तृतीयज्ञाननेत्रेण ज्ञात्वा, मां परितुष्टवान् ॥ ३५६ ॥ [ सर्ग ४ ]
अर्थ - गौतमगणधर कह रहे हैं कि - केवल ज्ञान के बाद जब वीर जिनकी दिव्यध्वनि नही खिरने लगी। तब इन्द्र ने "दिव्यध्वनि का कारण क्या है ?" इस पर उपयोग लगाया तो rafuज्ञान से मुझे (गौतम को ) जान कर सतुष्ट हुआ ।
लेकिन मंडलाचार्य श्री धर्मचन्द्र रचित " गौतम चरित्र" मै सिर्फ एक प्रहर तक वाणी के न खिरने की बात कही है । यथा
याममात्रे व्यतिक्रांते, सिहासन प्रसस्थिते । aar श्रीवीरनाथस्य, नाभवद् ध्वनिनिर्गम ॥ ७२ ॥
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अर्थ - वीरनाथ को प्रहर भर तक सिंहासन पर विराजे atra (चतुर्थ अधिकार ) तथापि ध्वनि नही निकली।