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________________ भगवान की दिव्यध्वनि ] [ ४७५ फिर गौतम के आने से भगवान् का उपदेश होना शुरू हुआ था । उपदेश सुनने के लिये भगवान् के सब तरफ गोलाई मे श्रोतागणो के बैठने के अलग-अलग वारह स्थान बने हुये रहते है । जिनमे देव मनुष्य और सज्ञी तिर्यञ्चो की अगणित सख्या रहती है । यह सभास्थान शास्त्रो मे " श्री मडप" के नाम से कहा गया है जो एक योजन लम्बा और एक योजन चौडा गोल होता है । वहा भगवान् बीचोबीच एक ऊचे सिंहासन पर उपदेश देने को विराजते है । भगवान् के विराजने का स्थान गंधकुटी कहलाता है भगवान् का उपदेश पूर्वाह्न, मध्याह्न अपराह्न कल और अर्द्ध रात्रि इन चार वक्त छह छह घडी तक नियम से होता रहा है । इन्द्र आदि के प्रश्न से इन से अतिरिक्त काल मे भी उपदेश हो जाता है। जैसा कि शुभचन्द्र रचित 'अग प्रज्ञप्ति' की इन गाथा से प्रकट है , तित्थयरस्स तिसंञ् सुमज्झिमाय नाहस्स, रक्तीए । छग्घडिया, बारह सहासु मज्झे दिब्ब झुणि कालो 118911 होदि गणि चक्किमहवथ ण्हादो, अण्णदाबि दिब्ब झुणि । [ प्रथम अधिकार ] अर्थ तीर्थंकर नाथ का बारह सभाओ मे दिव्यध्वनि काल तीनो सध्या और अर्द्ध रात्रि मे छह २ घडी का है । तथा गणधर, चक्रवति, इन्द्र, के प्रश्न से अन्य समय मे भी दिव्यध्वनि हो जाती है /
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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