________________
[ ५१७
उक्ति यहाँ चरितार्थ हो रही है । " विद्वान् सर्वत्र पूज्यते” का जमाना अब नही रहा । वह पुराना जमाना था जब राजा भोज जैसे विद्याप्रेमी नरपु गव इस धरातल पर बसते थे । उनके लिये कहा जाता है कि एक महाविद्वान् ने जिस दम यह सुना कि राजाभोज का स्वर्गवास होगया तो उसके मुँह से एकदम निकल पड़ा कि -
क्या सभी जैनी भाई
7
08
1
अद्य धारा निराधारा निरालबा सरस्वती । पंडिता खडिताः सर्वे भोजराजे दिवगते ॥
अर्थ - राजा भोज के स्वर्ग सिधारने पर आज धारा नगरी निराधार होगई । सरस्वती को अब आश्रय देने वाला कोई नही रहा । पडित सब खडित होगये उनका मान सन्मान करने वाला उठ गया ।
--
राजा भोज की यह घोषणा थी कि मेरी नगरी मे संस्कृत का पाठी यदि कुम्हार भी है तो वह खुशी से रहो । पर यदि ब्राह्मण भी है और वह संस्कृत विद्या से हीन है तो वह मेरी नगरी मे नही रह सकता है । कहते है कि उसकी इस नीति के फलस्वरूप उसकी पालकी को ढोने वाले कहार तक संस्कृत के ज्ञाता थे ।
प० आशाधरजी ने अनगारधर्मामृत की टीका मे प्राचीन पद्य इस प्रकार उद्धृत किया है
-
जैन ततदाधारौ तीर्थं द्वावेव तत्वत 1 संसारस्तीर्यते ताम्यां तत्सेवी तीर्थसेवकः ॥
[ संस्कृत संस्करण पु० १४० ]