________________
२८२ ] [* जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ काकारकी इस कृपासे ही यह ग्रन्थ अबतक थोडा बहुत प्रमाण मांना जारहा है। अन्यथा ऐसी बातोका दिगबर संप्रदायमे क्या काम ? मुझे आश्चर्य और साथही खेद भी है कि दिगवर मतका कहा जानेवाला एक प्राचीन पौराणिक ग्रन्थका यह हाल है। यह सब एक विभिन्न आम्नायके ग्रन्थकी नकल करनेका परिणाम है। नकलका रग तो यहातक बढा है कि आप सारे पद्मचरितको देख जाइये सैकड़ो जगह मुनि धर्मके कथनका प्रसंग होते भी उसमें २८ मूल गुणोंके नाम न मिलेंगे क्योकि जब पउमचरियमे नही तो पद्मचरितमे कहाँसे मिल सकते हैं । और इसीलिये हरिवंशकी उत्पत्तिमे भी गडबडी हुई है जैसा कि ऊपर कहा गया है। पदुमचरित पर्व ३२ के अन्तमे जो जिनप्रतिमाके पंचामृताभिषेकका विवेचन है वहभी हबह पउमचरिय की नकल है। आश्चर्य नहीं जो अन्य दि ग्रन्थों में पचामृताभिषेक का पाया जाना इसीका प्रताप हो उत्तरोत्तर ग्रन्थकर्ता देखादेखी ऐसा ही कथन करते चले गये हो और इस तरह पर एक भिन्न सप्रदायकी थोथी क्रियाकाडकी परम्परा चल पड़ी हो । तेरहपथ का उसे न मानना भी इस अनुमानको दृढ करता है कुछ भी हो ये बाते हमको सावधान करनेके लिये पर्याप्त है कि किसी सस्कृत प्राकृत ग्रन्थको महज एक प्राचीन होनेकी वजहसे ही मान्य नही कर लेना चाहिये। किन्तु ऐसे मामले मे सदसद्विवेक बुद्धिसे पूरा काम लेना चाहिये। दोनो ग्रन्थों में एक अत्यंत चितनीय स्थल
अउसछि सहस्साई वरिसाणं अंतर समक्खायं । तित्थयरेहि महायस भारहरामायणांण तु ॥१६॥
पर्व १०५ 'पउमरिय'।