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जैनधर्म जीवो का परलोक ]
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पहुँचते हैं, जिन्होने मनुष्य जन्म मे वैराग्य, तप, सयम के द्वारा अपनी आत्मा को पूर्ण शुद्ध बना लिया हो । ऐसे जीव ससार-चक्र से निकलकर शिवलोक मे पहुचते है । वहाँ वे अनन्तकाल तक "अतीन्द्रिय, आत्मजनित सुख का अनुभव करते रहते है । उनका संसार का आवागमन सदा के लिए छूट जाता है । वे अनन्त ज्ञान-दर्शन सुख वीर्यं के धारी होते है ।
जैन धर्म मे जीवो की तीन दशाएँ मानी गई है शुभ दशा, अशुभ दशा और शुद्ध दशा | शुभ दशा वाले जीव पुण्यकर्म के फल से देव नोक को प्राप्त होकर सासारिक सुख भोगते है । अशुभ दशा वाले जीव पाप कर्म के फल से नरको मे जाकर दुख सहते हैं तथा कभी वे जीव पशु-योनि मे भी जाकर दुख उठाते है । जिनको शुभ और अशुभ दोनो मिलकर मिश्रदशा होती है, वे जीव पुण्य और पाप - दोनो के मिश्रित फल से मनुष्य योनि मे जन्म लेकर वहा सुख - दुख दोनो को भोगते है । तीसरी, शुद्ध दशा वह है, जिसमे आत्मा के साथ पुण्यकर्म और पापकर्म का कुछ भी मैल नही रहता । आत्मा कर्म मलरहित पूर्ण शुद्ध बन जाती है । ऐसी शुद्धदशा मनुष्य योनि मे हो हो सकती है, अन्य योनियो मे नही । शुद्धदशा वाला जीव मानवशरीर का छोडकर सीधा 'शिवलोक' मे पहुँच जाता है । वहाँ अब वह शरीर धारण नही करता । जहाँ शरीर है, वहाँ जन्म-मरण है, आवागमन है, और ससार का चक्र है । अत शिवलोक के निवानी जीव अशरीरी होते है - उनको केवल वहाँ अपनी शुद्ध आत्मा ही होती है । मोक्षस्थान, मुक्तिस्थान, सिद्धालय इत्यादि नाम शिवलोक के ही पर्याय है ।
वहाँ के जीव निरजन, निर्विकार, चिदुरूप, परमात्मा,