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[ * जैन निबन्ध रत्नावली भाग २
अत पूर्णता की दृष्टि से अमर सिंह ने बौद्ध होते हुए भी अमरकोष मे बौद्ध जैन वैदिक सभी भारतीय धर्मों का परि- : चायक आवश्यक लोक प्रसिद्ध कथन बडी उदारता के साथ . सग्रह किया है।
कहाँ तो ग्रन्थकार की महान् उदारता और कहा व्याख्या सुधाकर का यह लिखना कि-"वेद विरोधी होने से बुद्ध और जिनेन्द्र के नाम नरक वर्ग मे देने चाहिये थे"। यह क्थन कितना संकीर्ण और गौरव विहीन है पाठक स्वय विचार करें।
~ गार शतक(मोक्ष मार्ग प्रकाशक) के ५वे अधिकार मे "अन्यमतो से जैनमत की तुलना" प्रकरण के अन्तर्गत प टोडरमलजी सा. ने भर्तृहरि कृत वैराग्य शतक नाम के प्राचीन वैदिक ग्रन्थ से एक श्लोक दिया है जो इस प्रकार है.
एको रागिषु राजते प्रियतमा देहार्धधारी हरो। नीरागेषु जिनो विमुक्तललनासंगो न यस्मात्पर ॥ दुर्वारस्मर बाण पन्नग विष व्यासक्त मुग्धो जनः । शेष कामविडंबितो हि विषयान् भोक्तुन मोक्षुक्षम ॥
अर्थात्-रागियों मे तो एक महादेव हैं जिन्होने अपनी प्रियतमा (पार्वती) के आधे शरीर को धारण कर रखा है। और वीतरागियो मे एक जिनदेव है जिनसे बढकर स्त्री-त्यागी कोई दूसरा नही है। शेष लोग तो दुनिवार कामदेव के बाण रूपी सर्प विष से ऐसे गाफिल हैं कि जो विषयो को न तो भलीभाति भोग ही सकते हैं और न छोड़ ही सकते हैं-इस तरह वे