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साधुओ की आहारचर्या का समय ]
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यहाँ आशाधर जी ने धारणे-पारणे के दिन दिनार्द्ध यानी दिन के ठीक मध्य भाग मे या उसके थोडे आगे-पीछे के समय मे अतिथि को दान देवे और उसके बाद प्रोषधोपवासी को आहार करने का आदेश दिया है । 'पर्व दिन के प्रभात से लेकर आगे १० पहर बाद प्रोपधोपवासी अतिथि को दान देवे और तदनन्तर आप भोजन करे ।" ऐसा लिखकर तो आशाधरजी ने इस मामले को बहुत ही खुलासा कर दिया है कि अतिथि का भोजनकाल मध्याह्न है और उसके बाद आहार दाता का भोजन काल है |
यहाँ कोई प्रश्न करे कि - " आशाधरजी ने धारणे की रात्रि के अन्त तक प्रोषधोपवास का काल ६ पहर का लिखा है | जब वह धारणे के दिन मे दिनार्द्ध के बाद भोजन करेगा तो उक्त ६ पहर की सख्या कैसे बनेगी ?" इसका समाधान आशाधरजी ने दिनार्द्ध शब्द की व्याख्या देकर किया है । व्याख्या इस प्रकार है - 'दिनार्द्ध दिवसस्य अर्धे प्रहरद्वये वा किञ्चिन्यूनेऽधिकेऽपि वा ।' अर्थ - दिन का अध भाग यानी २ पहर का काल दिनार्ध कहलाता है । दिनार्थ से कुछ कम या कुछ अधिक काल भी दिनार्ध कहलाता है । इस व्याख्या से यही सिद्ध होता है कि धारणा के दिन की रात्रि के अन्त तक जो व्ह पहर लिखे है वे पूरे पूरे न होकर हीन भी हो सकते है और उसके आगे के १० पहर पारणा दिनार्द्ध से उत्तरकाल मे भी पहुँच सकते हैं । हाँ, इतना खयाल आवश्यक है कि आगे-पीछे होकर भी निराहार रहने का समय १६ पहर से कम नही होना चाहिए ।
यहाँ अगर चूडीवाल जी यह कहे कि - " यहाँ आशाघर