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५६८ ] [ * जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ मे एक भिक्षा नियम वाले क्षुल्लक के लिए है, सभी क्षुल्लको के लिए नहीं है । अत कहना होगा कि यहां भी आपने अपनी विलक्षण प्रतिभा का ही चमत्कार दिखाया है।
मूलाचार के ऊपर लिखे प्रमाण मे बताया है कि"मध्याह्न मे खाना खाकर पेट भरे बालको के दिखाई देने आदि से भिक्षा वेला जानकर मुनि गोचरी पर उतरे ।" इस कथन को लेकर आप लिखते है कि-"वालक ८-६ बजे पहिले ही भोजन कर लेते है, अत मूलाचार के इस कथन से मध्याह्न अर्थ निकालना असङ्गत है।" इसका उत्तर यह है कि जब स्वय टीकाकार उस समय को मध्याह्न का बता रहे हैं तो उसमे तर्क का अवसर ही कहाँ है ? और उसे असङ्गत भी नहीं कह सकते। क्योकि बालक दोपहरी को भी भोजन करते है । उसीको लेकर टीकाकार ने पेटभरे बालक की बात लिखी है। इससे तो वह मध्याह्नका ही समय है यह अच्छी तरह पुष्ट होता है ।
आपने अपने मन्तव्य की पुष्टि मे सागार धर्मामृत अ०५ के श्लोक ३६, ३७, ३८ पेश किये हैं। किन्तु वे श्लोक तो उल्टे हमारे पक्ष का समर्थन करते है, जिसका आपको ध्यान नही है। उनमे लिखा है कि
"प्रोपधोपवास करने वाला श्रावक पर्व दिन के पूर्व दिन मे यानी सप्तमी, त्रयोदशी को दिन के अद्ध भाग मे या उसके थोडे आगे-पीछे के समय मे अतिथिको भोजन जिमाये बाद आप भोजन करे। तदनन्तर दिनका शेष भाग और रात्रिकाल कुल ६ पहर बिताये बाद पर्व दिनका अहोरात्र और पारणे का आधा दिन कुल १० पहर बीतने पर अतिथि को आहार देकर आप भोजन करे।"