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३४० ] [ * जैन निवन्ध रत्नावली भाग २
रही वात सुरेन्द्र मत्रो को सो इस विपय मे ऐमा समझना चाहिये कि भगवज्जिनमेन ने आदि पुराण मे गर्भ से लेकर निर्वाणपर्यंत ५३ गर्भान्वय क्रियाये कही है। उनमे से सब से उत्तम ७ क्रियाओं को परमस्थान बताते हुये उनका कन्वय नामकरण किया है।
अगले तीसरे भवमे तीर्थंकर होनेवाला जीव जव उच्चवर्ण के शुद्ध जाति कुल मे जन्म लेकर गर्भाधानादि संस्कारों से युक्त होता है तब उसके सज्जाति नामक प्रथम परमस्थान माना जाता है। सज्जाति ही आत्मोन्नति का मूल आधार है। वह सज्जाति का धारी सम्यग्दृष्टि श्रावक जब इज्या, वार्ता, दत्ति, आदि षट्कर्मों को करता हुआ धर्म मे दृढ रहता है, अन्य गृहस्थो मे न पाई जावे ऐसी शुभ वृत्ति का धारी होता है और पाप रहित आजीविका करता है तथा शास्त्र ज्ञान और चरित्र मे विशिष्ट होता है तब वह गृहस्थो का स्वामी गृहस्थाचार्य कहलाता है इसे ही गृहीशिता नामकी २० वी क्रिया कहते है और यही सद्गृहित्व नामका दूसरा परमस्थान कहलाता है। वर्णोत्तम, महीदेव, सुश्रुत, द्विजसत्तम, निस्तारक ग्रामपति और मानार्ह इन नामों को कहकर लोग उसका सत्कार करते है। (आदिपुराणपर्व ३८ श्लोक १४७) उक्त सद्गृहस्थ जब वस्त्रादि परिग्रहो का त्याग कर जिनदीक्षा धारण करता है तव उसके जिनरूपता नाम की २४ वी क्रिया होती है। यह ही पारिव्राज्य नामक तीसरा परमस्थान कहलाता है। इस क्रियाका धारी ही आगे चलकर सोलह कारण भावना भाकर तीर्थकर प्रकृति का बध करता है। वह मुनि समाधिमरण से प्राण त्याग कर जब स्वर्ग मे उत्पन्न हो इन्द्रपदवी का धारी होता है तब उसके इन्द्रोपपाद नामकी ३३ वी क्रिया होती है