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क्षपणा सार के कर्ता माधवचन्द्र ]
वशी नही लिखा है इससे यही अनुमान करना पडता है किइन माधवचन्द्र के वक्त तक शिलाहारवशी कोई राजा भोज हुआ ही न था । हुआ होता तो ये भी उसे शिलाहारवशी लिखे बिना नही रहते ।
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(३) तीसरी दलील आपकी यह है कि - "शक स० को विक्रम स० मानने से इतिहास मे बडी गडवडी पैदा होती है ।" इसका उत्तर यह है कि गडवडी तो उस हालत मे पैदा हो सकती है जबकि किसी उल्लेख मे शकस० का प्रयोग विक्रम सवत् मे हुआ हो उसे हम शालिवाहन संवत् मानकर चलें । माधवचन्द्र ने त्रिलोकसार गाथा ८५० की टीकामे शकराज का अर्थ विक्रम किया है । इस लिये उनके मत के अनुसार क्षपणासार मे दिये
शक स को हमे विक्रम स० मानना चाहिये। ऐसा न मानने से ही इनके इतिहास मे गडबडी पडती है और इतिहास की कडी बैठाने को ऊटपटाग कल्पना करनी पडती है । अगर हस्तलिखित प्रतियो मे उक्त गाथा ८५० की टीका का प्रचलित पाठ सही रूप मे है और निश्चियत. वह माधवचन्द्र की कलम से लिखे अनुसार ही है तो उस समय मे होने वाले अभयनन्दिवीरनन्दि-इद्रनन्दि- कनक्नन्दि नेमिचन्द्र आदि उद्भट आचार्यों का भी यही मत रहा होगा क्योकि अकेले माधवचन्द्र इन मान्य आचार्यो के मत से भिन्न कथन नही कर सकते हैं । और श्री माधव चन्द्रने कई गाथायें रचकर अपने गुरु नेमिचद्रकी सम्मति से त्रिलोकसार मे सामिल की है तो त्रिलोकसार की गाथा ८५० की टीका मे शक का अर्थ विक्रम भी माधवचद्र ने अपने गुरु वी सम्मति या उनकी आम्नाय के अनुसार ही किया होगा । साथ ही माधवचद्र भी तो स्वयं सिद्धातचक्रवर्ती थे। ऐसी अवस्था मे
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