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जैन कर्म सिद्धात
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का स्वभाव पडेगा । इसे ही प्रदेशवंध और प्रकृतिवध कहते है | योग से सिर्फ इतना ही काम होता है । कर्मों का आत्मा के साथ अमुक काल तक टिके रहना और अपना फल आत्मा को पहुँचाना जिसे कि स्थिति बन्ध और अनुभाग वन्ध कहते है यह काम अकेले योग का नही है, योग के साथ होने वाली कषायो का है । कषायो के बिना कर्म परमाणु आत्मा मे टिकते नही हैं । जैसे आते हैं वैसे ही चले जाते है । जैसे एक स्तम्भ पर यदि सच्चिकण वस्तु तैलादि लिपटे हुए हो तो वायु से उड़कर आई धूलि स्तम्भ पर चिपट जाती है । वरना चिपटती नही हैस्तम्भ का स्पर्शमात्र होकर वह गिर पडती है । स्तम्भ पर जितना हलका- गहरा चेप लगा होगा उसी माफक धूलि हलकीगहरी चिपक सकेगी। उसी तरह यदि कपाय तीव्र होगी तो कर्म जीव के साथ बहुत समय तक बन्धे रहेंगे और फल भी तीव्र देंगे । यदि कषाय हल्की होगी तो कर्म कम समय तक बन्धे रहेगे और फल भी कम देगे ।
कर्मो के स्वभाव आठ प्रकार के हैं, इस कारण उन-उन स्वभाव के रखने वाले कर्मों के नाम भी वैसे ही रख दिये गये हैं । वे नाम इस प्रकार हैं ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अतराय ।
(१) ज्ञानावरण कर्म - जीव के ज्ञानगुण को पूर्णत प्रगट नही होने देता है । इसी की वजह से अलग-अलग जीवो से ज्ञान की होनाधिकता पाई जाती है ।
(२) दर्शनावरण कर्म -- जीव के दर्शनगुण को ढाकता है । (३) वेदनीय कर्म - जीव को सुख-दुख का अनुभवन कराता है ।