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श्रावक की ११वीं प्रतिमा ] .
[ ५४५ "गृहतो मुनिवनमित्वा" पद्य मे इसका सक्षिप्त स्वरूप इस प्रकार लिखा है
"घरको छोड मुनियो के आश्रम मे जाकर गुरु के निकट व्रतो को ग्रहण करके जो तपस्या करता हुमा भिक्षा भोजन करता है और खण्डवस्त्र रखता है वह उत्कृष्ट श्रावक है।"
दिन में एक बार भोजन करना यह यहां के “तपस्यन्" शब्द से ध्वनित हाता है । इसकी सस्कृत टीका मे प्रभाचन्द्र ने इस उत्कृष्ट श्रावक को आर्य लिंग का धारी लिखा है और श्लोक में प्रयुक्त "भक्ष्याशन" वाक्य की व्याख्या भिक्षा समूह को खाने वाला किया है। जिसका मतलब होता है अनेक घरो से पात्र मे भिक्षा लाकर किसी एक जगह वैठकर खाने वाला।
चारित्रसार मे चामुण्डराय ने इसका स्वरूप ऐसा लिखा है
"उहिष्टविनिवृत्त स्वोद्दिष्टपिडोपधिशयनवरासनादे विरत मन् एकशाटकघरो भिक्षाशन पाणिपात्रपुटेनोपविश्यभोजी रात्रि प्रतिमादितप समुद्यत आतापनादियोगरहितो भवति ।" इसमे बताया है कि जो अपने निमित्त तैयार किये हये भोजन, उपधि शच्या और उत्तम आसनादिक से विरक्त रहता है। एक धोती रखता है-नीचे से ऊपर तक उसी को ओढ-पहिन लेता है, भिक्षा से भोजन लाकर करपात्रमे बैठकर जीमता है और
*मुद्रित चारित्रसार मे 'वसनादे' पाठ है। किन्तु कार्तिकेयानुप्रेक्षा को टीका में यहां का उद्धरण दिया है उसमे 'वरासना दे' पाठ है। शायद यही पाठ आशाधर के सामने भी था। उन्होने भी शयनासनादि लिखा है । वसन नही लिखा है।