________________
२२६ ]
[ ★ जैन निबन्ध रत्नावली भाग २
टीका मे ज्ञाति और कुल का अर्थ क्रमश मातृवंश और पितृवंश किया है। ऐसा अर्थ करने से अकलक के राजवार्तिक से विरोध आता है अत. वह योग्य नही है ।
बृहज्जैन शब्दार्णव प्रथमभाग पृष्ठ ७ पर राजासिद्धार्थ को हरिवशी (नाथ वश की एक शाखा ) बताया है किन्तु यह ठीक ज्ञात नही होता । हरिवंश और नाथवश शास्त्रो मे बिल्कुल जुदा बताये है । कवि वृन्दावन जी व्रत- वर्द्धमान जिन पूजा की जयमाला मे भी महावीर स्वामी को हरिवशी बनाया है देखो
"हरिवंश सरोजन को रवि हो । बलवंत महंत तुम्ही कवि हो ॥"
किन्तु यह भी प्राचीन आधार के अभाव से ठीक प्रतीत नही होता। बृहज्जैन शब्दार्णव भाग २ पृ० ६१० में लिखा है कि- "सोमप्रभ ने कुरु या चन्द्रवंश की स्थापना की ।" ऐसा लिखना गलत है सोम शब्द से भ्रम मे पड गए हैं सोमप्रभ से तो कुरुवश चला है और बाहुबलि के पुत्र सोमयश से सोम (चन्द्र) वंश चला है । दोनो सोम भिन्न भिन्न है । इसी के आगे फिर लिखा है- 'इक्ष्वाकु वंश को ही सूर्य वश कहते है” यह भी गलत है । क्योंकि ऋषभ का वंश इक्ष्वाकु बताया है और उनके पोते अर्कैकीर्ति से सूर्य वश चला है तथा दूसरे पोते सोमयश से सोमवंश चला है इस तरह सूर्य और चन्द्रवश इक्ष्वाकु वंश की शाखा हैं । इक्ष्वाकु और सूर्य वश एक नही हैं ।
अनेकांत वर्ष ३ किरण ३ मे एकं विस्तृत लेख मे मुनि कवीन्द्र सागरजी बीकानेर ने ज्ञातवंश और जाटवश को एक माना है और दोनो मे काश्यप गोत्र होना बताया है । अनेकात