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५६४ ] [* जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ चाहे उतने समय तक मामायिक करे। प्राचीन ग्रन्थो मे सामायिक का कोई एक निश्चितकाल का परिमाण लिखा ही नहीं है। वैसे मुनियो के तो हमेशा ही साम्यभाव के होने से सामायिक है। इसी से उनके सामायिक चारित्र माना है।
शास्त्रो मे कायोत्सर्ग का उत्कृष्ट काल १ वर्ष और जघन्य कात अन्तर्मुहर्न लिखा है उसी के आधार से सामायिक का जघन्य काल भी अन्तम हुर्त हो सकता है। कोई कुतर्क और दुराग्रह करे कि हम तो उत्कृष्ट काल को ही ग्रहण करेंगे तो उन्हे चाहिये कि-पहिले कायोत्सर्ग के उत्कृष्ट काल १ वर्प को अपनावे अगर यह सम्भव नहीं है तो फिर बदना-सामायिक के उत्कृष्ट काल पर ही जोर क्यो दिया जाता है। जिस प्रकार दूसरी कियाओ मे कोई बाधा नही पहुचे उस तरह सामजस्य करना चाहिए यही शास्त्र-विवेक है। इन कथनो से मध्याह्न की भिक्षा मे जो आपत्ति सामायिक के न बनने की उठाई जाती है वह दूर हो जाती है।
चूडीवालजी कहते हैं कि-"मुनियो का गोचरी पर उतरने का काल दिन मे २ वार है। एक तो मध्याह्न को सामायिक करने के पहिले दस वजे करोव का और दूसरा मध्याह्न की सामायिक के वाद चार वजे करीब का।" मगर ऐसा कहना शास्त्रानुकूल नही है। मूलाचार मे जिसका कि उद्धरण ऊपर दिया जा चुका है। उसमे सूर्योदय से लेकर मध्याह्न से दो घडी पहिले तक यानी ११। बजे तक का मुनियो का कार्यक्रम लिखा है उस कार्यक्रम मे तो कही भी मुनियो के गोचरी पर उतरने का जिक्र नही है । अत १० बजे के करीब गोचरी पर उतरने का प्रथम समय मूलाचार से कतई सिद्ध नही