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जैन धर्म मे अहिमा की व्याख्या
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दया दम त्याग समाधिनिष्ठं नयप्रमाणप्रकृताऽऽञ्जसार्थम् । अधष्यमन्यैरखिलः प्रवाजिन ! त्वदीयं मतमद्वितीयम् ॥
अर्थ-हे जिनेन्द्र । जिस मत मे दया, दम, त्याग और समाधि मे तत्पर रहने को कहा गया है, और जो नयो तथा प्रमाणो के द्वारा सम्यक् वस्तु तत्व को बिल्कुल स्पष्ट करने वाला है तथा जो एकातवादियो के वितडावादो से अबाधित्त है, ऐसा आपका मत ही अद्वितीय है।
स्याद्वाद तो एक कसौटी है जिसके जरिये मुमुक्ष को धर्म के असली स्वरूप की पहिचान होती है। किन्तु केवल पहचान से ही आत्मा का उद्धार नही हो सकता है । उद्धार होता है पहचान के बाद तदनुसार आचरण करने से । इसीलिए कहा है फ़ि "आचार प्रथमो धर्म ।" और इसी से जैन धर्म मे वताये गये ग्यारह अगो मे प्रथम अग का नाम आचारगि लिखा है। ऊपर हम लिख आये है कि जैन धर्म मे आचार का मूल अहिंसा वताई है। यो तो कुछ न कुछ अहिंमा सब ही धर्मों मे बताई है। क्योकि अगर अहिंसा किसी भी धर्म मे से निकाल दी जावे तो फिर उस धर्म मे सार चीज कुछ नही रहती है । तथापि जैन धर्म मे अहिंसा की जितनी प्रधानता, जितना उसका विस्तृत रूप और जितनी उसकी सूक्ष्म विवेचना है उतनी अन्य धर्मों मे नही है। अन्य धर्मो मे से किसी मे तो केवल मनुष्यो को ही वध न करने का उपदेश दिया गया है। किसी मे मनुष्यो व गो बैल अश्व आदि उपयोगी पशुओ को वध करने का आदेश दिया है। किन्तु जैन धर्म मे सूक्ष्म से सूक्ष्म को लेकर बड़े से बडे तक सव हो प्राणी मात्र की हिंसा न करने की आज्ञा दी गई है। और कहा है कि